क्या आप जानते हैं एक ऐसा पेड़ जो थार रेगिस्तान की शान है। (Kalpvriksh of Thar Desert - Khejri Tree)
क्या आप जानते हैं एक ऐसा पेड़ जो थार रेगिस्तान की शान है। (Kalpvriksh of Thar Desert - Khejri Tree)
जी हां हम यहां बात कर रहे हैं रेगिस्तान की शान खेजड़ी वृक्ष की जो कि पश्चिम राजस्थान की शान माना जाता है यहां हम खेजड़ी के बारे में कुछ निम्नलिखित तथ्यों पर विचार करेंगे
खेजड़ी वृक्ष को राजस्थान की शान माना जाता है यह पश्चिमी राजस्थान में आमतौर पर पाया जाता है और इससे जट्टी वृक्ष और शमी वृक्ष के नाम से भी जाना जाता है| पश्चिम रेगिस्तान में खेजड़ी वृक्ष की बहुत ही महत्वपूर्ण संख्या है पश्चिमी राजस्थान में यह बहुत ही अधिक संख्या में पाई जाती है और खेजड़ी वृक्ष की महिलाएं पूजा करती हैं और इसे दूसरा नाम भी दिया गया है कि यह घर की तुलसी है इसलिए इसकी पूजा करनी चाहिए और ऐसे कई वार त्योहार आते हैं जब महिलाएं खेजड़ी वृक्ष की पूजा करती हैं और खेजड़ी वृक्ष को तुलसी का अवतार मानते हैं इसलिए खेजड़ी वृक्ष महत्वपूर्ण है इसके अलावा खेजड़ी के पेड़ से एक तरह की सब्जी निकलती है जिससे सांगरी कहते हैं और यह सांगरी बहुत ही महत्वपूर्ण होती है गर्मी के मौसम में सांगरी होती है और सांगरी खाने में बहुत ही स्वादिष्ट होती हैं और यह कम से कम एक महीना लगातार सांगरी देती रहती है जिससे यहां के लोग सब्जी बनाते हैं| खेजड़ी को राजस्थान का राज्य वृक्ष होने का भी सौभाग्य प्राप्त हैं तो खेजड़ी यहां के सभी वृक्षों में महत्वपूर्ण मानी जाती है खेजड़ी की पत्तियों को लूर कहते हैं| जो की भेड़ बकरी आदि के चारे के रूप में प्रयुक्त की जाती है इसलिए यहां के लोग नूर को इकट्ठा करके रखते हैं और गर्मी का मौसम गुजर जाने के बाद इसे जानवरों को खिलाते हैं
खेजड़ी ने हजारों साल तक रेगिस्तानी चूल्हों को ताप दी है। इसकी लकड़ी सख्त होती है इसलिए इमारती कामों से ज्यादा ईंधन के रूप में प्रयोग में लायी जाती है। इसकी पत्तियों को लोग कहते हैं और यह रेगिस्तानी पशु जैसे भेड़, बकरी और गधों का पसंदीदा भोजन है। ऊंट इसे बड़े चाव से खाते हैं।
खेजड़ी को सिर्फ राजस्थान का वृक्ष कहना इसके साथ ज्यादती होगी। यह पूरे देश में मिलता है। हर भाषा में इसका अलग नाम है। राजस्थानी में इसे कल्पतरु झाटी और बोझी भी कहते हैं, तो दूसरी भाषाओं में क्या कहा जाता है? इन दोहों में सुनिएः
तमिली ‘पारंबी’ तवै, ‘झंड’ पंजाबी जांण,
‘सिमरू’ गुजराती सबद, तेलुगू ‘जंबी’ जांण,
कन्नड़ मां ‘बन्नी’ कहै, तकड़ो दरख्त प्रेम,
मिलत ‘सुन्दर’ मराठियां, आदर सेजड़ येम।
राजस्थान के अलावा खेजड़ी का पेड़ अफगानिस्तान, ईरान, पाकिस्तान के बलूच और सिंध इलाकों में भी मिलता है। खेजड़ी की जान हैं इसकी जड़ें। रेतभरी ज़मीन में इसकी जड़े चौसठ फुट तक पहुंच जाती हैं। सन् 1876 में खेजड़ी की जड़े 86 फीट और सन 1921 में 117 फीट तक पायी गयी हैं। जाहिर है, अपनी गहरी जड़ों के कारण ही मरु धरती की गर्भनाल से जुड़ा है और गर्मी के महीनों में जब सारी वनस्पति धूप में जल जाती है तब खेजड़ी में मार्च से जुलाई तक फल लगते है। इसकी फली सांगरी स्वादिष्ट और पौष्टिक होती है। किसी जमाने में यह गरीबों का मेवा थी। आजकल सांगरी को सुखाकर बेचने वाले व्यापारी बढ़ गये हैं सो अब सूखी सांगरी सैंकड़ों रुपये किलो बिकती है और काजू-किशमिश के साथ बनी इसकी सब्जी रईसों के भोजन में शुमार होती है।
त्रिकाल अर्थात जब तृण का अकाल, जल का अकाल और अन्न का अकाल पड़ता है। तब खेजड़ी की महिमा समझ आती है।
त्रिकाल अर्थात जब तृण का अकाल, जल का अकाल और अन्न का अकाल पड़ता है तब खेजड़ी की महिमा समझ आती है। खेजड़ी के वृक्ष से एक अमरगाथा भी जुड़ी है, खेजड़ली ग्राम के 363 विश्नोई जनों के वरदान की। भादों बदी अष्टमी यानी जन्माष्टमी के दिन संवत 1508 में नागौर के पीपासार ग्राम में जन्मे थे जांभोजी। उनके उनतीस नियमों को मानने वाले विश्नोई कहलाते हैं। जांभोजी ने अपने जीवनकाल में अकाल देखा था, भूख और प्यास से बिलखते बच्चे देखे थे। तब उन्होंने कहा था, ‘जीव दया पालणी रूंख लोलो नहीं छावै’ अर्थात वन्य जीवों को मत मारो और हरा वृक्ष मत काटो। जांभोजी के नियमों से संस्कारित मारवाड़ अंचल के खेजड़ली ग्राम और आसपास के ग्रामीण स्त्री-पुरूषों ने संवत 1787 में खेजड़ी को कटने से बचाने के लिए बलिदान किया था। वे खुद कट मरे थे, लेकिन उन्होंने पेड़ों को नहीं कटने दिया। यह घटना उस समय की थी, जब दिल्ली का मुगल साम्राज्य अस्थिर था। मराठे लगातार आक्रमण कर रहे थे। तब मारवाड़ नरेश के मंत्री गिरधरदास भंडारी ने खेजड़ी काटने का हुक्म दिया। खेजड़ी को जी जान से ज्यादा प्रेम करने वाले ग्रामीणजन पेड़ों से लिपट गये और कुल्हाड़ियों के वार उन्होंने अपने शरीर पर झेले। सारे विश्व में पेड़ों को बचाने का यह अनुपम उदाहरण है।
लेकिन आज खेजड़ी सिमट रही है। सैकड़ों साल उम्र में बुजुर्ग दरख्त नष्ट हो रहे हैं। नये पेड़ लग नहीं रहे। जिस वृक्ष ने हजारों साल से इंसान के हर दुख-सुख में साथ दिया, वह अब धीरे-धीरे बर्बाद हो रहा है। खेजड़ी बचाने की जरूरत है खेजड़ी बचेगा तो रेगिस्तान में जीवन बचेगा, यह एक बड़ा सच है।
- खेजड़ी और ऊंट अगर रेगिस्तान में नहीं होते तो न यहां जानवर रहते, न ही आदमी बसते। दूर-दूर तक सिर्फ बियाबान होता। सूंसाट करती हवाएं चलती।
- आदमी की आंखे दरख्त देखने को तरस जातीं। रेगिस्तान की सरजमी पर खड़े खेजड़ी के पेड़ सचमुच वरदान हैं।
- कभी रेगिस्तान में जाइए तो वहां के खुले मैदानों में तपती लू और प्रचंड ताप में खेजड़ी सीना ताने खड़ी नजर आती है।
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जी हां हम यहां बात कर रहे हैं रेगिस्तान की शान खेजड़ी वृक्ष की जो कि पश्चिम राजस्थान की शान माना जाता है यहां हम खेजड़ी के बारे में कुछ निम्नलिखित तथ्यों पर विचार करेंगे
खेजड़ी वृक्ष को राजस्थान की शान माना जाता है यह पश्चिमी राजस्थान में आमतौर पर पाया जाता है और इससे जट्टी वृक्ष और शमी वृक्ष के नाम से भी जाना जाता है| पश्चिम रेगिस्तान में खेजड़ी वृक्ष की बहुत ही महत्वपूर्ण संख्या है पश्चिमी राजस्थान में यह बहुत ही अधिक संख्या में पाई जाती है और खेजड़ी वृक्ष की महिलाएं पूजा करती हैं और इसे दूसरा नाम भी दिया गया है कि यह घर की तुलसी है इसलिए इसकी पूजा करनी चाहिए और ऐसे कई वार त्योहार आते हैं जब महिलाएं खेजड़ी वृक्ष की पूजा करती हैं और खेजड़ी वृक्ष को तुलसी का अवतार मानते हैं इसलिए खेजड़ी वृक्ष महत्वपूर्ण है इसके अलावा खेजड़ी के पेड़ से एक तरह की सब्जी निकलती है जिससे सांगरी कहते हैं और यह सांगरी बहुत ही महत्वपूर्ण होती है गर्मी के मौसम में सांगरी होती है और सांगरी खाने में बहुत ही स्वादिष्ट होती हैं और यह कम से कम एक महीना लगातार सांगरी देती रहती है जिससे यहां के लोग सब्जी बनाते हैं| खेजड़ी को राजस्थान का राज्य वृक्ष होने का भी सौभाग्य प्राप्त हैं तो खेजड़ी यहां के सभी वृक्षों में महत्वपूर्ण मानी जाती है खेजड़ी की पत्तियों को लूर कहते हैं| जो की भेड़ बकरी आदि के चारे के रूप में प्रयुक्त की जाती है इसलिए यहां के लोग नूर को इकट्ठा करके रखते हैं और गर्मी का मौसम गुजर जाने के बाद इसे जानवरों को खिलाते हैं
खेजड़ी ने हजारों साल तक रेगिस्तानी चूल्हों को ताप दी है। इसकी लकड़ी सख्त होती है इसलिए इमारती कामों से ज्यादा ईंधन के रूप में प्रयोग में लायी जाती है। इसकी पत्तियों को लोग कहते हैं और यह रेगिस्तानी पशु जैसे भेड़, बकरी और गधों का पसंदीदा भोजन है। ऊंट इसे बड़े चाव से खाते हैं।
खेजड़ी को सिर्फ राजस्थान का वृक्ष कहना इसके साथ ज्यादती होगी। यह पूरे देश में मिलता है। हर भाषा में इसका अलग नाम है। राजस्थानी में इसे कल्पतरु झाटी और बोझी भी कहते हैं, तो दूसरी भाषाओं में क्या कहा जाता है? इन दोहों में सुनिएः
तमिली ‘पारंबी’ तवै, ‘झंड’ पंजाबी जांण,
‘सिमरू’ गुजराती सबद, तेलुगू ‘जंबी’ जांण,
कन्नड़ मां ‘बन्नी’ कहै, तकड़ो दरख्त प्रेम,
मिलत ‘सुन्दर’ मराठियां, आदर सेजड़ येम।
राजस्थान के अलावा खेजड़ी का पेड़ अफगानिस्तान, ईरान, पाकिस्तान के बलूच और सिंध इलाकों में भी मिलता है। खेजड़ी की जान हैं इसकी जड़ें। रेतभरी ज़मीन में इसकी जड़े चौसठ फुट तक पहुंच जाती हैं। सन् 1876 में खेजड़ी की जड़े 86 फीट और सन 1921 में 117 फीट तक पायी गयी हैं। जाहिर है, अपनी गहरी जड़ों के कारण ही मरु धरती की गर्भनाल से जुड़ा है और गर्मी के महीनों में जब सारी वनस्पति धूप में जल जाती है तब खेजड़ी में मार्च से जुलाई तक फल लगते है। इसकी फली सांगरी स्वादिष्ट और पौष्टिक होती है। किसी जमाने में यह गरीबों का मेवा थी। आजकल सांगरी को सुखाकर बेचने वाले व्यापारी बढ़ गये हैं सो अब सूखी सांगरी सैंकड़ों रुपये किलो बिकती है और काजू-किशमिश के साथ बनी इसकी सब्जी रईसों के भोजन में शुमार होती है।
त्रिकाल अर्थात जब तृण का अकाल, जल का अकाल और अन्न का अकाल पड़ता है। तब खेजड़ी की महिमा समझ आती है।
त्रिकाल अर्थात जब तृण का अकाल, जल का अकाल और अन्न का अकाल पड़ता है तब खेजड़ी की महिमा समझ आती है। खेजड़ी के वृक्ष से एक अमरगाथा भी जुड़ी है, खेजड़ली ग्राम के 363 विश्नोई जनों के वरदान की। भादों बदी अष्टमी यानी जन्माष्टमी के दिन संवत 1508 में नागौर के पीपासार ग्राम में जन्मे थे जांभोजी। उनके उनतीस नियमों को मानने वाले विश्नोई कहलाते हैं। जांभोजी ने अपने जीवनकाल में अकाल देखा था, भूख और प्यास से बिलखते बच्चे देखे थे। तब उन्होंने कहा था, ‘जीव दया पालणी रूंख लोलो नहीं छावै’ अर्थात वन्य जीवों को मत मारो और हरा वृक्ष मत काटो। जांभोजी के नियमों से संस्कारित मारवाड़ अंचल के खेजड़ली ग्राम और आसपास के ग्रामीण स्त्री-पुरूषों ने संवत 1787 में खेजड़ी को कटने से बचाने के लिए बलिदान किया था। वे खुद कट मरे थे, लेकिन उन्होंने पेड़ों को नहीं कटने दिया। यह घटना उस समय की थी, जब दिल्ली का मुगल साम्राज्य अस्थिर था। मराठे लगातार आक्रमण कर रहे थे। तब मारवाड़ नरेश के मंत्री गिरधरदास भंडारी ने खेजड़ी काटने का हुक्म दिया। खेजड़ी को जी जान से ज्यादा प्रेम करने वाले ग्रामीणजन पेड़ों से लिपट गये और कुल्हाड़ियों के वार उन्होंने अपने शरीर पर झेले। सारे विश्व में पेड़ों को बचाने का यह अनुपम उदाहरण है।
लेकिन आज खेजड़ी सिमट रही है। सैकड़ों साल उम्र में बुजुर्ग दरख्त नष्ट हो रहे हैं। नये पेड़ लग नहीं रहे। जिस वृक्ष ने हजारों साल से इंसान के हर दुख-सुख में साथ दिया, वह अब धीरे-धीरे बर्बाद हो रहा है। खेजड़ी बचाने की जरूरत है खेजड़ी बचेगा तो रेगिस्तान में जीवन बचेगा, यह एक बड़ा सच है।
- खेजड़ी और ऊंट अगर रेगिस्तान में नहीं होते तो न यहां जानवर रहते, न ही आदमी बसते। दूर-दूर तक सिर्फ बियाबान होता। सूंसाट करती हवाएं चलती।
- आदमी की आंखे दरख्त देखने को तरस जातीं। रेगिस्तान की सरजमी पर खड़े खेजड़ी के पेड़ सचमुच वरदान हैं।
- कभी रेगिस्तान में जाइए तो वहां के खुले मैदानों में तपती लू और प्रचंड ताप में खेजड़ी सीना ताने खड़ी नजर आती है।
थार रेगिस्तान की शान है।, Kalpvriksh of Thar Desert, थार रेगिस्तान में उगने वाली वनस्पतियों में खेजड़ी, रेगिस्तान की शान खेजड़ी वृक्ष , पश्चिम राजस्थान की शान ,राजस्थान में खेजड़ी वृक्ष , रेगिस्तान,तपती धूप,खेजड़ी की छांव , खेजड़ी रेगिस्तान की शान | Khejri: A Wonder Tree of the Thar (Rajasthan), खेजड़ी रेगिस्तान की शान,.
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