फलंदा, मेघाधर और घनसाली के ग्रामीण क्षेत्र का इलाका। [पहाड़ी प्रदेशों में खेती।]—Hindi Information
फलंदा, मेघाधर और घनसाली के ग्रामीण क्षेत्र का इलाका। [पर्वतीय या पहाड़ी प्रदेशों में खेती]—Hindi Information
उत्तराखण्ड राज्य में पहली बार गौलापार में काला धान उगाने में प्रगतिशील काश्तकार नरेंद्र मेहरा को सफलता मिली है. कृषि अधिकारियों के मुताबिक, वैज्ञानिकों से ब्लैक राइस के औषधीय गुणों की जांच कराई जाएगी. यदि सब कुछ ठीक ठाक रहा तो काश्तकारों को ब्लैक राइस उत्पादन के लिए प्रेरित किया जाएगा. इसके लिए कार्ययोजना बनाई जाएगी.
प्रदेश में कुल कृषि क्षेत्रफल का 56 प्रतिशत भाग पर्वतीय कृषि के अंतर्गत आता है, लेकिन पहाड़ों में केवल 13 प्रतिशत भाग में ही सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है, शेष 87 प्रतिशत भाग असिंचित है, जिस वजह से पहाड़ों में धान का उत्पादन बहुत कम होता है। कम पानी वाले क्षेत्रों में धान उत्पादन की यह तकनीक किसानों के लिए वरदान साबित हो सकती है।
जब भी ऊंचे पहाड़ों और उनमें बने सीढ़ीदार खेतों को देखता हूँ, कानों में भगवत गीता का यह श्लोक गूंजने लगता है: ‘अन्नादभवंति भूतानि पर्जन्याद अन्न संभवः’ , यानि अन्न पर ही जीव पनपते हैं और अन्न वर्षा से पैदा होता है। उन शैल-शिखरों में तो सच ही केवल वर्षा के बूते पर अन्न उपजता है। सीढ़ीदार खेतों में खेती करने वाला किसान भी जैसे सदियों से उस स्थानीय बौड़े पक्षी की तरह आसमान ताकता मन ही मन कहता रहा है, ‘सरग दिदी पांणि-पांणि’। और विडम्बना यह है कि इन्हीं पहाड़ों की गोंद से अनेक नदियाँ निकल-निकल कर, कल-कल करतीं, उछलती-कूदतीं नीचे मैदानों की ओर बहती हैं। पहाड़ की ये ज्यादातर जल-बेटियां पहाड़ों के पैरों को ही प्रणाम करके आगे निकल जाती हैं।
हालांकि, पहाड़ों का अधिकांश हिस्सा प्राचीन काल से ही घने वनों से ढंका रहा है, लेकिन ज्यों-ज्यों मनुष्यों की बसासत बढ़ती गई, वनों का क्षेत्रफल घटता गया। फिर भी, अगर आज की तस्वीर देखें, पूरे उत्तराखण्ड के कुल क्षेत्रफल 56.72 लाख हेक्टेयर में से मात्र 7.41 लाख हेक्टेयर भूमि में ही खेती की जा रही है। इनमें में से करीब 89 प्रतिशत क्षेत्रफल में खेतिहारों के पास छोटी और सीमान्त जोतें हैं। उत्तराखण्ड की खेती योग्य भूमि में से लगभग 3.38 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचित खेती की जा रही है। यह सिंचित क्षेत्र मुख्य रूप से नदी घाटियों में और कुछ एक जगहों पर पहाड़ों के पैताने के चौरस हिस्से में हैं, जहाँ नदियाँ-गधेरों से गूलें खोदकर लोग खेतों तक पानी लाते रहे हैं। लेकिन, पहाड़ों के पैताने से नीचे उतरकर भाबर की बलुई भूमि के पार तराई का नम और समतल इलाका देस के सबसे उर्वर इलाकों में गिना जाता है। देश का पहला कृषि विश्वविद्यालय यहीं 1960 में पंतनगर में खोला गया, जहाँ आधुनिक खेती पनपी और वहाँ पैदा किये गये उन्नत बीजों ने देश-विदेश में नई खेती की अलख जगाई। नोबल विजेता विश्व प्रसिद्द कृषि वैज्ञानिक डॉ. नार्मन बोरलॉग ने तो यहाँ तक कहा कि हरित क्रांति का जन्म तराई की इसी उर्वरा भूमि में हुआ।
यानि समुद्रतल से लगभग 1000 फुट ऊंची तराई की चौरस भूमि से लेकर हिमाच्छादित नंदादेवी के 25660 फुट ऊंचे माथे तक फैली है, उत्तराखण्ड के नीची-ऊंची भूमि। इसमें हैं ऊंची पर्वतमालाएं, गहरी घाटियां, ग्लेशियर, नदी घाटियों में फैले समतल ‘सेरे’, कल-कल, छल-छल बहती नदियाँ, गाड़-गधेरे, अविरल बहते झरने और लबालब भरे झील-तालाब। परम्परागत रूप से पहाड़ के किसान के लिये साल भर में तीन मौसम आते रहे हैं: रुड़ी (ग्रीष्म), चौमास (वर्षा), और ह्यूंद (शीत)। इन्हीं मौसमों के हिसाब से वे अपनी परंपरागत फसलें उगाते रहे हैं। अनाज में गेहूं, धान, मक्का, मंड़वा (कोदो), मादिरा (ज्वार), कौनी, दालों में गहत, भट, माष, लोबिया, मसूर, सीमी (राजमा), मटर , तिलहनों में तोरिया (राई), सब्जियों में आलू, पालक, मेथी, मटर, प्याज, लहसुन, राई आदि।
केसर वाला गांव के युवा कहते हैं कि पहले की तुलना में अब ज्यादा लोग बासमती की खेती नहीं कर रहे हैं. लोगों ने प्लॉटिंग करके अपने ज्यादा खेत बेच दिए हैं लेकिन अभी भी जो लोग बासमती का उत्पादन कर रहे हैं उनकी डिमांड बहुत है. जानकार रमेश पेटवाल बताते हैं कि हमेशा से देहरादून की बासमती की डिमांड बहुत रही है बाजार में अलग-अलग ब्रांड के नाम से देहरादून की लोकल बासमती बिकती है. क्योंकि जो भी पर्यटक उत्तराखंड आता है और राजधानी देहरादून जब वह पहुंचता है तो देहरादून में बासमती की डिमांड सबसे पहले होती है लोकल बासमती की मांग सबसे ज्यादा है.
बासमती की पौध इन दिनों नर्सरी में तैयार की जा रही हैं. अगले 15 से 20 दिनों में रोपाई करके बासमती की पूरी पौध लगाई जाएगी. बासमती की क्वांटिटी भले ही कम हुई हो लेकिन आज भी देहरादून की बासमती की क्वालिटी बरकरार है. अफगानिस्तान के दोस्त मोहम्मद खान पहली बार बासमती उगाने वाले शख्स रहे हैं अफगानिस्तान से निर्वाचित होने के बाद राजधानी देहरादून में उन्होंने अपना समय बिताया. अफगानिस्तान से बासमती का बीज मंगाया और देहरादून में बड़े पैमाने पर इसकी खेती की.
मंड़वा उग जाने पर बैलों पर जुते दंयाले से नन्हे बोटों के लिये छंटाई। मक्का के बढ़ते पौधों को मिटटी का सहारा देने के लिये कुटले से उकेर लगाना। मंड़वे की सामूहिक निराई और घाटियों के समतल सेरों में धान की रोपाई के लिये हुड़के की थाप पर हुड़किया बोल :
ये सेरी का मोत्यूं तुम भोग लाग्ला हो
सेव दिया, बिद दिया देवो हो
ये गौं का भूमियां दैन ह्या हो
रोपारों तोपरों बरोबरी दिया हो
हलिया बल्दा बरोबरी दिया हो
पंचनाम देवो हो।
यहां के किसान पारंपरिक तरीके से कई तरह की फसलों की खेती करते हैं, जिसमें मुख्य फसलें हैं जैसे मोटे अनाज (रागी, झुंगरा, कौणी, चीणा आदि), धान, गेहूं, जौ, दालें (गहत, भट्ट, मसूर, लोबिया, राजमाश आदि), तिलहन, कम उपयोग वाली फसलें (चैलाई, ओगल, बथुआ, भंगीरा, जखिया आदि)।
पहाड़ों की उपजाऊ जमीन पर पहाड़ के किसान अपनी फसलें केवल वर्षा के भरोसे करते आ रहे हैं, समय पर वर्षा हो गयी तो उपज से घर-भंडार भर गए, नहीं हुई तो फसल चौपट।
Видео फलंदा, मेघाधर और घनसाली के ग्रामीण क्षेत्र का इलाका। [पहाड़ी प्रदेशों में खेती।]—Hindi Information канала Taj Agro Products
उत्तराखण्ड राज्य में पहली बार गौलापार में काला धान उगाने में प्रगतिशील काश्तकार नरेंद्र मेहरा को सफलता मिली है. कृषि अधिकारियों के मुताबिक, वैज्ञानिकों से ब्लैक राइस के औषधीय गुणों की जांच कराई जाएगी. यदि सब कुछ ठीक ठाक रहा तो काश्तकारों को ब्लैक राइस उत्पादन के लिए प्रेरित किया जाएगा. इसके लिए कार्ययोजना बनाई जाएगी.
प्रदेश में कुल कृषि क्षेत्रफल का 56 प्रतिशत भाग पर्वतीय कृषि के अंतर्गत आता है, लेकिन पहाड़ों में केवल 13 प्रतिशत भाग में ही सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है, शेष 87 प्रतिशत भाग असिंचित है, जिस वजह से पहाड़ों में धान का उत्पादन बहुत कम होता है। कम पानी वाले क्षेत्रों में धान उत्पादन की यह तकनीक किसानों के लिए वरदान साबित हो सकती है।
जब भी ऊंचे पहाड़ों और उनमें बने सीढ़ीदार खेतों को देखता हूँ, कानों में भगवत गीता का यह श्लोक गूंजने लगता है: ‘अन्नादभवंति भूतानि पर्जन्याद अन्न संभवः’ , यानि अन्न पर ही जीव पनपते हैं और अन्न वर्षा से पैदा होता है। उन शैल-शिखरों में तो सच ही केवल वर्षा के बूते पर अन्न उपजता है। सीढ़ीदार खेतों में खेती करने वाला किसान भी जैसे सदियों से उस स्थानीय बौड़े पक्षी की तरह आसमान ताकता मन ही मन कहता रहा है, ‘सरग दिदी पांणि-पांणि’। और विडम्बना यह है कि इन्हीं पहाड़ों की गोंद से अनेक नदियाँ निकल-निकल कर, कल-कल करतीं, उछलती-कूदतीं नीचे मैदानों की ओर बहती हैं। पहाड़ की ये ज्यादातर जल-बेटियां पहाड़ों के पैरों को ही प्रणाम करके आगे निकल जाती हैं।
हालांकि, पहाड़ों का अधिकांश हिस्सा प्राचीन काल से ही घने वनों से ढंका रहा है, लेकिन ज्यों-ज्यों मनुष्यों की बसासत बढ़ती गई, वनों का क्षेत्रफल घटता गया। फिर भी, अगर आज की तस्वीर देखें, पूरे उत्तराखण्ड के कुल क्षेत्रफल 56.72 लाख हेक्टेयर में से मात्र 7.41 लाख हेक्टेयर भूमि में ही खेती की जा रही है। इनमें में से करीब 89 प्रतिशत क्षेत्रफल में खेतिहारों के पास छोटी और सीमान्त जोतें हैं। उत्तराखण्ड की खेती योग्य भूमि में से लगभग 3.38 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचित खेती की जा रही है। यह सिंचित क्षेत्र मुख्य रूप से नदी घाटियों में और कुछ एक जगहों पर पहाड़ों के पैताने के चौरस हिस्से में हैं, जहाँ नदियाँ-गधेरों से गूलें खोदकर लोग खेतों तक पानी लाते रहे हैं। लेकिन, पहाड़ों के पैताने से नीचे उतरकर भाबर की बलुई भूमि के पार तराई का नम और समतल इलाका देस के सबसे उर्वर इलाकों में गिना जाता है। देश का पहला कृषि विश्वविद्यालय यहीं 1960 में पंतनगर में खोला गया, जहाँ आधुनिक खेती पनपी और वहाँ पैदा किये गये उन्नत बीजों ने देश-विदेश में नई खेती की अलख जगाई। नोबल विजेता विश्व प्रसिद्द कृषि वैज्ञानिक डॉ. नार्मन बोरलॉग ने तो यहाँ तक कहा कि हरित क्रांति का जन्म तराई की इसी उर्वरा भूमि में हुआ।
यानि समुद्रतल से लगभग 1000 फुट ऊंची तराई की चौरस भूमि से लेकर हिमाच्छादित नंदादेवी के 25660 फुट ऊंचे माथे तक फैली है, उत्तराखण्ड के नीची-ऊंची भूमि। इसमें हैं ऊंची पर्वतमालाएं, गहरी घाटियां, ग्लेशियर, नदी घाटियों में फैले समतल ‘सेरे’, कल-कल, छल-छल बहती नदियाँ, गाड़-गधेरे, अविरल बहते झरने और लबालब भरे झील-तालाब। परम्परागत रूप से पहाड़ के किसान के लिये साल भर में तीन मौसम आते रहे हैं: रुड़ी (ग्रीष्म), चौमास (वर्षा), और ह्यूंद (शीत)। इन्हीं मौसमों के हिसाब से वे अपनी परंपरागत फसलें उगाते रहे हैं। अनाज में गेहूं, धान, मक्का, मंड़वा (कोदो), मादिरा (ज्वार), कौनी, दालों में गहत, भट, माष, लोबिया, मसूर, सीमी (राजमा), मटर , तिलहनों में तोरिया (राई), सब्जियों में आलू, पालक, मेथी, मटर, प्याज, लहसुन, राई आदि।
केसर वाला गांव के युवा कहते हैं कि पहले की तुलना में अब ज्यादा लोग बासमती की खेती नहीं कर रहे हैं. लोगों ने प्लॉटिंग करके अपने ज्यादा खेत बेच दिए हैं लेकिन अभी भी जो लोग बासमती का उत्पादन कर रहे हैं उनकी डिमांड बहुत है. जानकार रमेश पेटवाल बताते हैं कि हमेशा से देहरादून की बासमती की डिमांड बहुत रही है बाजार में अलग-अलग ब्रांड के नाम से देहरादून की लोकल बासमती बिकती है. क्योंकि जो भी पर्यटक उत्तराखंड आता है और राजधानी देहरादून जब वह पहुंचता है तो देहरादून में बासमती की डिमांड सबसे पहले होती है लोकल बासमती की मांग सबसे ज्यादा है.
बासमती की पौध इन दिनों नर्सरी में तैयार की जा रही हैं. अगले 15 से 20 दिनों में रोपाई करके बासमती की पूरी पौध लगाई जाएगी. बासमती की क्वांटिटी भले ही कम हुई हो लेकिन आज भी देहरादून की बासमती की क्वालिटी बरकरार है. अफगानिस्तान के दोस्त मोहम्मद खान पहली बार बासमती उगाने वाले शख्स रहे हैं अफगानिस्तान से निर्वाचित होने के बाद राजधानी देहरादून में उन्होंने अपना समय बिताया. अफगानिस्तान से बासमती का बीज मंगाया और देहरादून में बड़े पैमाने पर इसकी खेती की.
मंड़वा उग जाने पर बैलों पर जुते दंयाले से नन्हे बोटों के लिये छंटाई। मक्का के बढ़ते पौधों को मिटटी का सहारा देने के लिये कुटले से उकेर लगाना। मंड़वे की सामूहिक निराई और घाटियों के समतल सेरों में धान की रोपाई के लिये हुड़के की थाप पर हुड़किया बोल :
ये सेरी का मोत्यूं तुम भोग लाग्ला हो
सेव दिया, बिद दिया देवो हो
ये गौं का भूमियां दैन ह्या हो
रोपारों तोपरों बरोबरी दिया हो
हलिया बल्दा बरोबरी दिया हो
पंचनाम देवो हो।
यहां के किसान पारंपरिक तरीके से कई तरह की फसलों की खेती करते हैं, जिसमें मुख्य फसलें हैं जैसे मोटे अनाज (रागी, झुंगरा, कौणी, चीणा आदि), धान, गेहूं, जौ, दालें (गहत, भट्ट, मसूर, लोबिया, राजमाश आदि), तिलहन, कम उपयोग वाली फसलें (चैलाई, ओगल, बथुआ, भंगीरा, जखिया आदि)।
पहाड़ों की उपजाऊ जमीन पर पहाड़ के किसान अपनी फसलें केवल वर्षा के भरोसे करते आ रहे हैं, समय पर वर्षा हो गयी तो उपज से घर-भंडार भर गए, नहीं हुई तो फसल चौपट।
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