मरुस्थल में पानी की कहानी |—Restored Color Video of 1960's Thar Desert India***Hindi Exclusive
थार मरुस्थल में पानी के प्रति समाज का रिश्ता बड़ा ही आस्था भरा रहा है। पानी को श्रद्धा और पवित्रता के भाव से देखा जाता रहा है। इसीलिए पानी का उपयोग विलासिता के रूप में न होकर, जरूरत को पूरा करने के लिए ही होता रहा है। पानी को अमूल्य माना जाता रहा है। इसका कोई ‘मोल’ यहां कभी नहीं रहा। थार में यह परंपरा रही है कि यहां ‘दूध’ बेचना और ‘पूत’ बेचना एक ही बात मानी जाती है। इसी प्रकार पानी को ‘आबरू’ भी माना जाता है।
बरसात के पानी को संचित करने के सैकड़ों वर्षों के परंपरागत तरीकों पर फिर से सोचा जाने लगा है। राजस्थान का थार मरुस्थलीय क्षेत्र में सदियों से जीवन रहा है। यहां औसतन 380 मिलीमीटर बारिश होती है। इस क्षेत्र में जैव विविधता भी अपार रही है। जहां राष्ट्रीय औसत बारह सौ मिलीमीटर माना गया है, वहीं राजस्थान में बारिश का यह औसत करीब 531 मिलीमीटर है। क्षेत्रफल की दृष्टि से राजस्थान समूचे देश में सबसे बड़ा राज्य है और इसका दो-तिहाई हिस्सा थार मरुस्थल का है। इसी थार मरुस्थल में जल संरक्षण की परंपरागत संरचनाएं काफी समृद्धशाली रही हैं। जब तक इनको समाज का संरक्षण मिलता रहा, तब तक इन संरचनाओं का बिगाड़ा न के बराबर हुआ और ज्यों-ज्यों शासन की दखलदारी बढ़ी, त्यों-त्यों समाज ने हाथ खींचना शुरू कर दिया और इस तरह वे संरचनाएं जो एक समय जीवन का आधार थीं, समाज की विमुखता के साथ ये ढांचें भी ध्वस्त होते गए या बेकार मान लिए गए। इन ढांचों या संरचनाओं को फिर से अस्तित्व में लाने की जरूरत या इच्छाशक्ति कहीं बची नहीं। यह संयोग ही समझिए कि अब पिछले कुछ सालों से इस ओर ध्यान गया है और बरसात के पानी को संरक्षित करने के उपायों को फिर से खंगाला जाने लगा है।
एक समय था जब ‘पाइप वाटर’ को ही पीने योग्य समझा जाता था। भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी जब पदारूढ़ हुए तो उन्होंने पांच टेक्नोलॉजी मिशन शुरू किया। सैम पित्रोदा, जो उनके सलाहकार थे, ने दिल्ली में कुछ लोगों की बैठक बुलाई। जयराम रमेश जो इस समय केंद्रीय मंत्री हैं, तब सैम पित्रोदा के साथ टेक्नोलॉजी मिशन में थे। यह लेखक उन कुछ लोगों में से एक था, जो पानी पर चर्चा के लिए पित्रोदा जी की बुलाई बैठक में उपस्थित था। राजस्थान को लेकर जब चर्चा चली तो इस लेखक ने बरसाती पानी का उपयोग पेयजल के रूप में किए जाने की बात कही। तब सैम पित्रोदा न केवल चौंके, बल्कि उनका स्पष्ट मत था कि पाइप वाटर ही सुरक्षित है। पर, हम सभी जानते हैं कि वह पानी हर एक कंठ को तर नहीं कर सकता। आज स्वयं राजस्थान सरकार (और भारत सरकार भी) बरसात के पानी का संग्रहण करने पर बल दे रही है।
जल के समुचित उपयोग के लिए राज्य सरकार ने फरवरी 2010 में एक ‘जल नीति’ जारी की। अलबत्ता यह बताना कठिन है कि इसमें पेयजल के लिए कैसे और कितने पुख्ता प्रावधान हैं। बेशक सिंचाई प्रणालियों के लिए करोड़ों-अरबों रुपयों का प्रावधान रहता है। इस तरह की जानकारियाँ हैं कि नर्मदा और इंदिरा गांधी नहर क्षेत्र में सिंचाई क्षमता में बढ़ोतरी होती रहे और सिंचाई प्रबंधन सुदृढ़ हो। ठीक इसके उलट पेयजल की दृष्टि से देखें तो एक उदाहरण से स्थिति साफ हो जाती है। पेयजल का समूचा प्रबंधन जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग के पास है। राज्य स्तर से लेकर डिवीजन और जिला स्तर तक जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग का संजाल (नेटवर्क) फैला हुआ है। यही संजाल पेयजल के लिए उत्तरदायी है। लेकिन क्या इस संजाल के पास पानी है। इस विभाग के पास पेयजल के स्रोत के तौर पर सतही जल और भूगर्भ का जल है। पिछले दशक में बीकानेर, जोधपुर और जैसलमेर के कोई दो हजार गांव पेयजल के अभाव में सांसत में थे। ये सभी गांव नहर के पानी से जोड़ दिए गए थे और नहर में पर्याप्त पानी नहीं था। यही स्थिति शहरी और कस्बाई क्षेत्रों की है। तब अनुमान लगाया गया था कि कोई सत्रह लाख लोग पेयजल संकट से त्रस्त थे। इन क्षेत्रों में पशुधन भी बहुलता से मिलता है और इसको भी प्यास तो लगती ही है।
यह हकीक़त है कि नहर के मुहाने पर बसे गाँवों की प्यास भी उसके पानी से नहीं बुझ पाती। बीकानेर जिले में एक गांव का नाम है- बेरियांवाली। इस गांव के बाशिंदे तब तक प्यासे नहीं थे जब तक उनकी परंपरागत जल प्रणालियां मौजूद थीं। जब नहर का पानी ‘पाइप लाइन’ से घर में आया तो परंपरागत तरीके उपेक्षित होने लगे। इधर ऐसा हुआ और उधर नहर के पानी पर भी भरोसा नहीं रहा कि वह समय पर और जरूरत भर के लिए मिलेगा कि नहीं। लोग ठगे रह गए। ऐसा थार मरुस्थल के उन गाँवों में देखा जा सकता है, जो जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग के जलापूर्ति से जुड़ सके हैं।
रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरैं, मोती, मानस, चून।
थार मरुस्थल के कितने ही गांव, नगर या बस्तियां ऐसी हैं, जिनके नाम के साथ सर शब्द जुड़ा है। यह ‘सर’ शब्द पानी के ही किसी स्रोत का संकेत देता है। इस ‘सर’ शब्द से ही यह पता चलता है कि अमुक स्थान पर पानी का कोई स्रोत-सरोवर, कुआं, जोहड़ या बावड़ी रहा होगा।
इसी आधार पर जोधपुर, जैसलमेर और बीकानेर में ऐसे विशाल सरोवर बन सके, जो आज भी अपने पूरे वैभव के साथ देखने को मिल जाएंगे। ताल की ज़मीन पर बने-खुदे तालाबों- सरोवरों के चारों ओर ‘आगोर’ या ‘पायतान’ छोड़े जाते थे। तालाब तक पानी के पहुंचने के ये स्थल ‘कैचमेंट’ होते थे। इनके प्रति भी लोगों के मनों में पवित्रता बोध रहता था। इन आगारों, पायतानों या कैचमेंट क्षेत्र में जूते पहनकर जाना वर्जित होता था।
भारत में अगर पचास लीटर पानी प्रतिव्यक्ति रोज़ाना की खपत मानें तो 1.5 मिलियन हेक्टेयर मीटर पानी की जरूरत है। आबादी की घटत-बढ़त के आधार पर पानी की घटत-बढ़त देखी जा सकती है। तथ्य बताते हैं कि वास्तव में पानी की कमी का संकट उतना नहीं है, जितना इसके प्रबंधन, संरक्षण और संयमित उपयोग को लेकर है। पेयजल की कोई सुसंगत नीति जहां जरूरी है, वहीं आम सहमति भी जरूरी है।
Видео मरुस्थल में पानी की कहानी |—Restored Color Video of 1960's Thar Desert India***Hindi Exclusive канала Taj Agro Products
बरसात के पानी को संचित करने के सैकड़ों वर्षों के परंपरागत तरीकों पर फिर से सोचा जाने लगा है। राजस्थान का थार मरुस्थलीय क्षेत्र में सदियों से जीवन रहा है। यहां औसतन 380 मिलीमीटर बारिश होती है। इस क्षेत्र में जैव विविधता भी अपार रही है। जहां राष्ट्रीय औसत बारह सौ मिलीमीटर माना गया है, वहीं राजस्थान में बारिश का यह औसत करीब 531 मिलीमीटर है। क्षेत्रफल की दृष्टि से राजस्थान समूचे देश में सबसे बड़ा राज्य है और इसका दो-तिहाई हिस्सा थार मरुस्थल का है। इसी थार मरुस्थल में जल संरक्षण की परंपरागत संरचनाएं काफी समृद्धशाली रही हैं। जब तक इनको समाज का संरक्षण मिलता रहा, तब तक इन संरचनाओं का बिगाड़ा न के बराबर हुआ और ज्यों-ज्यों शासन की दखलदारी बढ़ी, त्यों-त्यों समाज ने हाथ खींचना शुरू कर दिया और इस तरह वे संरचनाएं जो एक समय जीवन का आधार थीं, समाज की विमुखता के साथ ये ढांचें भी ध्वस्त होते गए या बेकार मान लिए गए। इन ढांचों या संरचनाओं को फिर से अस्तित्व में लाने की जरूरत या इच्छाशक्ति कहीं बची नहीं। यह संयोग ही समझिए कि अब पिछले कुछ सालों से इस ओर ध्यान गया है और बरसात के पानी को संरक्षित करने के उपायों को फिर से खंगाला जाने लगा है।
एक समय था जब ‘पाइप वाटर’ को ही पीने योग्य समझा जाता था। भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी जब पदारूढ़ हुए तो उन्होंने पांच टेक्नोलॉजी मिशन शुरू किया। सैम पित्रोदा, जो उनके सलाहकार थे, ने दिल्ली में कुछ लोगों की बैठक बुलाई। जयराम रमेश जो इस समय केंद्रीय मंत्री हैं, तब सैम पित्रोदा के साथ टेक्नोलॉजी मिशन में थे। यह लेखक उन कुछ लोगों में से एक था, जो पानी पर चर्चा के लिए पित्रोदा जी की बुलाई बैठक में उपस्थित था। राजस्थान को लेकर जब चर्चा चली तो इस लेखक ने बरसाती पानी का उपयोग पेयजल के रूप में किए जाने की बात कही। तब सैम पित्रोदा न केवल चौंके, बल्कि उनका स्पष्ट मत था कि पाइप वाटर ही सुरक्षित है। पर, हम सभी जानते हैं कि वह पानी हर एक कंठ को तर नहीं कर सकता। आज स्वयं राजस्थान सरकार (और भारत सरकार भी) बरसात के पानी का संग्रहण करने पर बल दे रही है।
जल के समुचित उपयोग के लिए राज्य सरकार ने फरवरी 2010 में एक ‘जल नीति’ जारी की। अलबत्ता यह बताना कठिन है कि इसमें पेयजल के लिए कैसे और कितने पुख्ता प्रावधान हैं। बेशक सिंचाई प्रणालियों के लिए करोड़ों-अरबों रुपयों का प्रावधान रहता है। इस तरह की जानकारियाँ हैं कि नर्मदा और इंदिरा गांधी नहर क्षेत्र में सिंचाई क्षमता में बढ़ोतरी होती रहे और सिंचाई प्रबंधन सुदृढ़ हो। ठीक इसके उलट पेयजल की दृष्टि से देखें तो एक उदाहरण से स्थिति साफ हो जाती है। पेयजल का समूचा प्रबंधन जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग के पास है। राज्य स्तर से लेकर डिवीजन और जिला स्तर तक जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग का संजाल (नेटवर्क) फैला हुआ है। यही संजाल पेयजल के लिए उत्तरदायी है। लेकिन क्या इस संजाल के पास पानी है। इस विभाग के पास पेयजल के स्रोत के तौर पर सतही जल और भूगर्भ का जल है। पिछले दशक में बीकानेर, जोधपुर और जैसलमेर के कोई दो हजार गांव पेयजल के अभाव में सांसत में थे। ये सभी गांव नहर के पानी से जोड़ दिए गए थे और नहर में पर्याप्त पानी नहीं था। यही स्थिति शहरी और कस्बाई क्षेत्रों की है। तब अनुमान लगाया गया था कि कोई सत्रह लाख लोग पेयजल संकट से त्रस्त थे। इन क्षेत्रों में पशुधन भी बहुलता से मिलता है और इसको भी प्यास तो लगती ही है।
यह हकीक़त है कि नहर के मुहाने पर बसे गाँवों की प्यास भी उसके पानी से नहीं बुझ पाती। बीकानेर जिले में एक गांव का नाम है- बेरियांवाली। इस गांव के बाशिंदे तब तक प्यासे नहीं थे जब तक उनकी परंपरागत जल प्रणालियां मौजूद थीं। जब नहर का पानी ‘पाइप लाइन’ से घर में आया तो परंपरागत तरीके उपेक्षित होने लगे। इधर ऐसा हुआ और उधर नहर के पानी पर भी भरोसा नहीं रहा कि वह समय पर और जरूरत भर के लिए मिलेगा कि नहीं। लोग ठगे रह गए। ऐसा थार मरुस्थल के उन गाँवों में देखा जा सकता है, जो जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग के जलापूर्ति से जुड़ सके हैं।
रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरैं, मोती, मानस, चून।
थार मरुस्थल के कितने ही गांव, नगर या बस्तियां ऐसी हैं, जिनके नाम के साथ सर शब्द जुड़ा है। यह ‘सर’ शब्द पानी के ही किसी स्रोत का संकेत देता है। इस ‘सर’ शब्द से ही यह पता चलता है कि अमुक स्थान पर पानी का कोई स्रोत-सरोवर, कुआं, जोहड़ या बावड़ी रहा होगा।
इसी आधार पर जोधपुर, जैसलमेर और बीकानेर में ऐसे विशाल सरोवर बन सके, जो आज भी अपने पूरे वैभव के साथ देखने को मिल जाएंगे। ताल की ज़मीन पर बने-खुदे तालाबों- सरोवरों के चारों ओर ‘आगोर’ या ‘पायतान’ छोड़े जाते थे। तालाब तक पानी के पहुंचने के ये स्थल ‘कैचमेंट’ होते थे। इनके प्रति भी लोगों के मनों में पवित्रता बोध रहता था। इन आगारों, पायतानों या कैचमेंट क्षेत्र में जूते पहनकर जाना वर्जित होता था।
भारत में अगर पचास लीटर पानी प्रतिव्यक्ति रोज़ाना की खपत मानें तो 1.5 मिलियन हेक्टेयर मीटर पानी की जरूरत है। आबादी की घटत-बढ़त के आधार पर पानी की घटत-बढ़त देखी जा सकती है। तथ्य बताते हैं कि वास्तव में पानी की कमी का संकट उतना नहीं है, जितना इसके प्रबंधन, संरक्षण और संयमित उपयोग को लेकर है। पेयजल की कोई सुसंगत नीति जहां जरूरी है, वहीं आम सहमति भी जरूरी है।
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