बिदरी का काम - कर्नाटक की अनोखी धातु कला Bidar (ಬೀದರ್) Karnataka #बिदरी
बीदर भारत में कर्नाटक राज्य के उत्तर-पूर्वी भाग में एक पहाड़ी शीर्ष शहर है। यह बीदर जिले का मुख्यालय है जो महाराष्ट्र और तेलंगाना की सीमाओं को पार करता है। यह व्यापक बिदर मेट्रोपॉलिटन क्षेत्र में एक तेजी से शहरीकरण वाला शहर है
बिदरी की चीजें, बीदर गांव का गौरव है, जो हैदराबाद के पास है। यह यहीं की जन्मी एक शिल्पकला की परंपरा है जो बहुत ही प्रशंसा और आदर अर्जित कर चुकी है। इसमें जस्ता और तांबे पर काम किया जाता है, जिसे शुद्ध चांदी या पतली चादर पर जड़ा जाता है। यह एक नाजुक, और उल्लेखनीय रूप से जटिल कला है। बिदरी की वस्तुएं हैदराबाद की अधिकांश कला और शिल्प की दुकानों में पाई जा सकती हैं और बीदर में नियमित पर्यटन का आयोजन स्थानीय विरासत टूर कंपनियों द्वारा किया जाता है, जहां पर्यटक कारीगरों को शिल्प का काम करते देख सकते हैं।
ಬೀದರ್ ಭಾರತದ ಕರ್ನಾಟಕ ರಾಜ್ಯದ ಈಶಾನ್ಯ ಭಾಗದಲ್ಲಿರುವ ಬೆಟ್ಟದ ಮೇಲಿನ ನಗರ. ಇದು ಮಹಾರಾಷ್ಟ್ರ ಮತ್ತು ತೆಲಂಗಾಣದ ಗಡಿಯಲ್ಲಿರುವ ಬೀದರ್ ಜಿಲ್ಲೆಯ ಪ್ರಧಾನ ಕ is ೇರಿಯಾಗಿದೆ. ಇದು ವಿಶಾಲವಾದ ಬೀದರ್ ಮೆಟ್ರೋಪಾಲಿಟನ್ ಪ್ರದೇಶದಲ್ಲಿ ವೇಗವಾಗಿ ನಗರೀಕರಣಗೊಳ್ಳುವ ನಗರವಾಗಿದೆ
बीदरी एक लोककला है जो की कर्नाटक के बीदर शहर से शुरु हुआ था। और बाद मे धीरे-धीरे इस कला का उपयोग आन्ध्र प्रदेश के हैदराबाद शहर मे भी होने लगा।
#बिदरी #कर्नाटक #ಬೀದರ್ #Textile
एक धातु हस्तशिल्प कि 14 वीं सदी में बीदर, कर्नाटक, में उत्पन्न बीदर है, बहमनी सुल्तानों के शासन के दौरान शब्द 'Bidriware' बीदर, जो अभी भी निर्माण के लिए मुख्य केंद्र है की बस्ती से निकलती है द्वितीय metalware [प्रशस्ति पत्र की जरूरत]. इसके हड़ताली जड़ना कलाकृति के लिए कारण, Bidriware भारत की एक महत्वपूर्ण निर्यात हस्तशिल्प और धन के एक प्रतीक के रूप में बेशकीमती है। धातु इस्तेमाल किया शुद्ध चांदी की पतली शीट के साथ एक काला मिश्र धातु जस्ता और तांबा जड़ा है।
बीदरी को कांस धातू से बनाई जाती है और इसके अन्दर जस्ता और मिश्र धातु का उपयोग भी किया जाता है। कोई भी कलाकृति बनाने से पूर्च उस पर नमूना अथवा डिज़ाइन बनाया जाता है। इसके बाद चाहे वह फूलदान हो अथवा बक्सा आदि उसे एक अड्डे पर बिठाया जाता है। इसके साथ ही कलाकार चाँदी अथवा सोने के तारों से फूल-पत्तियों के डिज़ाइनों पर तार जमाता चला जाता है। बीदरी का उत्पाद बन जाने के बाद उस पर तेल की परत लगाई जाती है जिस से उसका रंग गहरा हो जाता है जिस से उस उत्पाद पर चमक आ जाती है और वह उत्पाद काले और चमकीले रंग का दिखता है।
स्थानिय परंपरा के अनुसार वारांगल के काकतिया राजा ने भगवान शिव का मन्दिर तेरहवी सदी के मध्य मे बनवाया था। जो शहर धीरे धीरे बड़ा हुआ और बिदर नाम से जाना जाने लगा। १३४७ ईसवी मे गुलबर्ग का पहला ग्रामिन भमन शाह गंगू जो कि अलाउद्दीन बहमन शाह के नाम से प्रसिद था, ने बीदर विजय प्राप्त की थी।
काले स्याह जस्ते अर्थात् जिंक पर उज्जवल सजीली नक्काशी, ऐसी कलाकारी आप सभी ने अवश्य देखी होगी। इसे देख आपको वर्षा ऋतु की काली रात्री में स्याह घटाओं के पीछे से चन्द्रमा की चमकती चाँदनी भी अवश्य स्मरण हुई होगी। हाँ, मैं सम्पूर्ण भारत में प्रसिद्ध बिदरी की विलक्षण धातुकला के विषय में चर्चा कर रही हूँ।
बिदरी कला से मेरा प्रथम साक्षात्कार हुआ जब किसी ने मुझे इसी कलाकारी द्वारा सज्ज एक आकर्षक डिबिया उपहार स्वरूप दी थी । उस कलाकारी ने मुझे इतना मोहित किया कि मैं जब भी शिल्पकला वस्तुएं देखती, इन्हें अवश्य ढूँढती थी। अंततः मुझे इनके दर्शन हुए लेपाक्षी में जो की आंध्र प्रदेश राज्य का आधिकारिक शोरूम या विक्रय केंद्र है। इनसे प्रभावित होकर मैंने हैदराबाद को छानना आरम्भ किया। तब जाकर मुझे बिदरी कला गढ़न पद्धति की जानकारी मिली।
मेरा अनुमान था कि बिदरी कार्यशाला ढूँढने हेतु मुझे हैदरबाद के सालारजंग संग्रहालय के आसपास के क्षेत्र का सूक्ष्मता से निरिक्षण करना पड़ेगा। और मेरा अनुमान सही निकला। ढूँढते ढूँढते हम एक साधारण सी छोटी दुकान में पहुंचे। गुलिस्तान-ए-बिदरी, इस कार्यशाला के सम्मुख मोटे अक्षरों में लिखा था, ‘बिदरी कला में राष्ट्रीय सम्मान द्वारा पुरस्कृत’। असमंजस की अवस्था लिए हम धीरे से इस दुकान के भीतर गए। भीतर पहुंचते ही हमारी सर्व व्याकुलता लुप्त हो गयी। दुकान के मालिक ने हमारा अत्यंत आत्मीयता से स्वागत किया।
यह कार्यशाला किसी घर के पिछवाड़े सा प्रतीत हो रही थी। हमने इस कार्यशाला का सम्पूर्ण चक्कर लगाया। कारीगर सतत अपने कार्य में व्यस्त रहते हुए ही हमें इस कला के विषय में जानकारी देते रहे तथा हमारे जिज्ञासु प्रश्नों के उत्तर देते रहे।
बिदरी कला इतिहास
यूँ तो भारत में विभिन्न धातुओं तथा धातु शिल्पों की विस्तृत जानकारी प्राचीनकाल से ही उपलब्ध थी। विभिन्न मिश्रित धातुओं तथा उनकी उपयोगता के विषय में भी भारतवासियों को पर्याप्त ज्ञान था। साथ ही यह भी माना जाता है कि बहामनी शासकों के काल में एक फारसी कारीगर यहाँ आया था तथा बीदर के धातु शिल्पकारों के साथ मिलकर इस अनूठी कला को जन्म दिया था जिसे इस नगर के ही नाम पर बिदरी अथवा बीदर कला कहा जाता है। अतः भारत में बिदरी कार्य का इतिहास लगभग ५०० वर्ष प्राचीन है।
स्वतंत्रता पूर्व बीदर दक्खन तथा हैदराबाद का अभिन्न अंग था। १९४७ के पश्चात इसे कर्नाटक राज्य में सम्मिलित किया गया। यह बिदरी कला अब भी बीदर के साथ साथ हैदराबाद में भी जीवित है।
इस शोध पत्र के अनुसार बिदरी कला कई अन्य स्थानों में भी की जाती है। इनमें मुख्य हैं, उत्तर प्रदेश में लखनऊ, बंगाल में मुर्शीदाबाद, बिहार में पुर्निया इत्यादि।
तकनिकी भाषा में बिदरी कार्य को अलंकृत पपड़ीदार धातु कार्य कहा जाता है।
बिदरी कार्य से सम्बंधित आवश्यक जानकारी प्राप्त करने के पश्चात आईये हैदराबाद की एक कार्यशाला में जाते हैं जहां हम इस कार्य में उपयुक्त तकनीक तथा मेहनत को देखने तथा समझने का प्रयत्न करेंगे।
बिदरी शिल्प | कर्नाटक की बिदरी वेयर क्राफ्ट की निराली छटा | बिदरी धातु-शिल्पकला सृजन प्रत्यक्ष दर्शन
Видео बिदरी का काम - कर्नाटक की अनोखी धातु कला Bidar (ಬೀದರ್) Karnataka #बिदरी канала Taj Agro Products
बिदरी की चीजें, बीदर गांव का गौरव है, जो हैदराबाद के पास है। यह यहीं की जन्मी एक शिल्पकला की परंपरा है जो बहुत ही प्रशंसा और आदर अर्जित कर चुकी है। इसमें जस्ता और तांबे पर काम किया जाता है, जिसे शुद्ध चांदी या पतली चादर पर जड़ा जाता है। यह एक नाजुक, और उल्लेखनीय रूप से जटिल कला है। बिदरी की वस्तुएं हैदराबाद की अधिकांश कला और शिल्प की दुकानों में पाई जा सकती हैं और बीदर में नियमित पर्यटन का आयोजन स्थानीय विरासत टूर कंपनियों द्वारा किया जाता है, जहां पर्यटक कारीगरों को शिल्प का काम करते देख सकते हैं।
ಬೀದರ್ ಭಾರತದ ಕರ್ನಾಟಕ ರಾಜ್ಯದ ಈಶಾನ್ಯ ಭಾಗದಲ್ಲಿರುವ ಬೆಟ್ಟದ ಮೇಲಿನ ನಗರ. ಇದು ಮಹಾರಾಷ್ಟ್ರ ಮತ್ತು ತೆಲಂಗಾಣದ ಗಡಿಯಲ್ಲಿರುವ ಬೀದರ್ ಜಿಲ್ಲೆಯ ಪ್ರಧಾನ ಕ is ೇರಿಯಾಗಿದೆ. ಇದು ವಿಶಾಲವಾದ ಬೀದರ್ ಮೆಟ್ರೋಪಾಲಿಟನ್ ಪ್ರದೇಶದಲ್ಲಿ ವೇಗವಾಗಿ ನಗರೀಕರಣಗೊಳ್ಳುವ ನಗರವಾಗಿದೆ
बीदरी एक लोककला है जो की कर्नाटक के बीदर शहर से शुरु हुआ था। और बाद मे धीरे-धीरे इस कला का उपयोग आन्ध्र प्रदेश के हैदराबाद शहर मे भी होने लगा।
#बिदरी #कर्नाटक #ಬೀದರ್ #Textile
एक धातु हस्तशिल्प कि 14 वीं सदी में बीदर, कर्नाटक, में उत्पन्न बीदर है, बहमनी सुल्तानों के शासन के दौरान शब्द 'Bidriware' बीदर, जो अभी भी निर्माण के लिए मुख्य केंद्र है की बस्ती से निकलती है द्वितीय metalware [प्रशस्ति पत्र की जरूरत]. इसके हड़ताली जड़ना कलाकृति के लिए कारण, Bidriware भारत की एक महत्वपूर्ण निर्यात हस्तशिल्प और धन के एक प्रतीक के रूप में बेशकीमती है। धातु इस्तेमाल किया शुद्ध चांदी की पतली शीट के साथ एक काला मिश्र धातु जस्ता और तांबा जड़ा है।
बीदरी को कांस धातू से बनाई जाती है और इसके अन्दर जस्ता और मिश्र धातु का उपयोग भी किया जाता है। कोई भी कलाकृति बनाने से पूर्च उस पर नमूना अथवा डिज़ाइन बनाया जाता है। इसके बाद चाहे वह फूलदान हो अथवा बक्सा आदि उसे एक अड्डे पर बिठाया जाता है। इसके साथ ही कलाकार चाँदी अथवा सोने के तारों से फूल-पत्तियों के डिज़ाइनों पर तार जमाता चला जाता है। बीदरी का उत्पाद बन जाने के बाद उस पर तेल की परत लगाई जाती है जिस से उसका रंग गहरा हो जाता है जिस से उस उत्पाद पर चमक आ जाती है और वह उत्पाद काले और चमकीले रंग का दिखता है।
स्थानिय परंपरा के अनुसार वारांगल के काकतिया राजा ने भगवान शिव का मन्दिर तेरहवी सदी के मध्य मे बनवाया था। जो शहर धीरे धीरे बड़ा हुआ और बिदर नाम से जाना जाने लगा। १३४७ ईसवी मे गुलबर्ग का पहला ग्रामिन भमन शाह गंगू जो कि अलाउद्दीन बहमन शाह के नाम से प्रसिद था, ने बीदर विजय प्राप्त की थी।
काले स्याह जस्ते अर्थात् जिंक पर उज्जवल सजीली नक्काशी, ऐसी कलाकारी आप सभी ने अवश्य देखी होगी। इसे देख आपको वर्षा ऋतु की काली रात्री में स्याह घटाओं के पीछे से चन्द्रमा की चमकती चाँदनी भी अवश्य स्मरण हुई होगी। हाँ, मैं सम्पूर्ण भारत में प्रसिद्ध बिदरी की विलक्षण धातुकला के विषय में चर्चा कर रही हूँ।
बिदरी कला से मेरा प्रथम साक्षात्कार हुआ जब किसी ने मुझे इसी कलाकारी द्वारा सज्ज एक आकर्षक डिबिया उपहार स्वरूप दी थी । उस कलाकारी ने मुझे इतना मोहित किया कि मैं जब भी शिल्पकला वस्तुएं देखती, इन्हें अवश्य ढूँढती थी। अंततः मुझे इनके दर्शन हुए लेपाक्षी में जो की आंध्र प्रदेश राज्य का आधिकारिक शोरूम या विक्रय केंद्र है। इनसे प्रभावित होकर मैंने हैदराबाद को छानना आरम्भ किया। तब जाकर मुझे बिदरी कला गढ़न पद्धति की जानकारी मिली।
मेरा अनुमान था कि बिदरी कार्यशाला ढूँढने हेतु मुझे हैदरबाद के सालारजंग संग्रहालय के आसपास के क्षेत्र का सूक्ष्मता से निरिक्षण करना पड़ेगा। और मेरा अनुमान सही निकला। ढूँढते ढूँढते हम एक साधारण सी छोटी दुकान में पहुंचे। गुलिस्तान-ए-बिदरी, इस कार्यशाला के सम्मुख मोटे अक्षरों में लिखा था, ‘बिदरी कला में राष्ट्रीय सम्मान द्वारा पुरस्कृत’। असमंजस की अवस्था लिए हम धीरे से इस दुकान के भीतर गए। भीतर पहुंचते ही हमारी सर्व व्याकुलता लुप्त हो गयी। दुकान के मालिक ने हमारा अत्यंत आत्मीयता से स्वागत किया।
यह कार्यशाला किसी घर के पिछवाड़े सा प्रतीत हो रही थी। हमने इस कार्यशाला का सम्पूर्ण चक्कर लगाया। कारीगर सतत अपने कार्य में व्यस्त रहते हुए ही हमें इस कला के विषय में जानकारी देते रहे तथा हमारे जिज्ञासु प्रश्नों के उत्तर देते रहे।
बिदरी कला इतिहास
यूँ तो भारत में विभिन्न धातुओं तथा धातु शिल्पों की विस्तृत जानकारी प्राचीनकाल से ही उपलब्ध थी। विभिन्न मिश्रित धातुओं तथा उनकी उपयोगता के विषय में भी भारतवासियों को पर्याप्त ज्ञान था। साथ ही यह भी माना जाता है कि बहामनी शासकों के काल में एक फारसी कारीगर यहाँ आया था तथा बीदर के धातु शिल्पकारों के साथ मिलकर इस अनूठी कला को जन्म दिया था जिसे इस नगर के ही नाम पर बिदरी अथवा बीदर कला कहा जाता है। अतः भारत में बिदरी कार्य का इतिहास लगभग ५०० वर्ष प्राचीन है।
स्वतंत्रता पूर्व बीदर दक्खन तथा हैदराबाद का अभिन्न अंग था। १९४७ के पश्चात इसे कर्नाटक राज्य में सम्मिलित किया गया। यह बिदरी कला अब भी बीदर के साथ साथ हैदराबाद में भी जीवित है।
इस शोध पत्र के अनुसार बिदरी कला कई अन्य स्थानों में भी की जाती है। इनमें मुख्य हैं, उत्तर प्रदेश में लखनऊ, बंगाल में मुर्शीदाबाद, बिहार में पुर्निया इत्यादि।
तकनिकी भाषा में बिदरी कार्य को अलंकृत पपड़ीदार धातु कार्य कहा जाता है।
बिदरी कार्य से सम्बंधित आवश्यक जानकारी प्राप्त करने के पश्चात आईये हैदराबाद की एक कार्यशाला में जाते हैं जहां हम इस कार्य में उपयुक्त तकनीक तथा मेहनत को देखने तथा समझने का प्रयत्न करेंगे।
बिदरी शिल्प | कर्नाटक की बिदरी वेयर क्राफ्ट की निराली छटा | बिदरी धातु-शिल्पकला सृजन प्रत्यक्ष दर्शन
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