Dharmraj Yudhishthir || A Poem about biggest DharmGyata by Deepankur Bhardwaj
Now a days there are so many people who thinks that they know Dharm more than Samrat Yudhishthir, who is called Dharmraj. So this is my answer to those foolish people on behalf of Dharmraj Yudhishthir.
Jai Shree Krishna ❤️🙏🏻❤️🙏❤️
Instagram Link : https://www.instagram.com/bhardwajdeepankur/
Twitter Link : https://twitter.com/Devildeep7
Mahabharat Bori Critical Edition Link : https://drive.google.com/file/d/1bJIeK3ekKJS_W0jjcd6n1WR8HCR1iP39/view?usp=drivesdk
Poem Lyrics:
महाभारत का मैं वो पृष्ठ हूं
जिसे भुला ये समाज है,
धर्म धर्म का बोध तुम्हें
आज कराता धर्मराज है।
सशरीर स्वर्ग मिला
अडिग मेरा धर्म था,
रथ धरा पर न रहता था
ऐसा उच्च कोटि का कर्म था।
सशरीर स्वर्ग मिला
अडिग मेरा धर्म था,
रथ धरा पर न रहता था
ऐसा उच्च कोटि का कर्म था।
स्वार्थ से परे रहा
न किसी लोभ में जिया,
विष मेरे अनुज को दिया
ये कड़वा घूंट पी पिया।
अब धर्म की जो बात है
तो धर्म ही बताता हूं,
धर्म के विचित्र रूप का
दर्शन तुम्हें कराता हूं।
द्यूत का खेल खेला
तातश्री का मान था,
पिता के बाद तात थे पिता मेरे
पितृ धर्म का मुझको ज्ञान था।
ना छल की समझ थी
रहा धर्म के साथ सदा,
द्युत भी ना छोड़ पाऊं
ऐसे वचन में मैं जा बंधा।
मामाश्री ने कहा द्यूत का खेल खेलो
सामने भाई तुम्हारे कौरव हैं,
वचन था दांव लगेगा उस पर
जो चीज तुम्हारा गौरव है।
राजपाठ भी गया
आधिपत्य रहा ना एक भी गांव पर,
खेल नहीं वो प्रपंच था
भाई भी लगे दांव पर।
किसी एक धर्म की लाज रखता तो
दूसरे पर संकट गहराया था,
शास्त्रों में यही पक्ष
धर्मसंकट कहलाया था।
मामा शकुनि ने शब्दों में
ऐसा मुझे उलझाया था,
द्यूत के भंवर से मैं
निकल ही ना पाया था।
धर्म संकट में डाल कर
जीते थे कौरव मुझे,
अरे दांव पर लगाए भाई क्योंकि
उन पर राज्य से अधिक था गौरव मुझे।
लगाया पांचाली को दांव पर
मेरी आत्मा को मुझसे क्रोध था,
पर कुलवधू का भी अपमान होगा
ऐसा मुझे ना बोध था।
किंतु धर्म अधर्म की तुला पकड़ने वाले
होते हो कौन तुम,
लेते द्रौपदी का पक्ष हो
और बेटियों की हत्या पर रहते हो मोन तुम।
धर्म की तो बात दूर
विचित्र तुम्हारी न्याय प्रणाली है,
न्याय की कैसी विचित्र तुमने
परिभाषा बना डाली है।
निर्वस्त्र था मैं जगत में आया
सभी निर्वस्त्र जगत में आते हैं,
फिर एक देव अपने पुत्र को जन्म से
अभेद्य कवच कुंडल दे जाते हैं।
अब ज़रा मुझे तुम बतला दो
न्याय का कौन सा ये अध्याय है,
मुझे प्रतीत होता ये
हर जातक से अन्याय है।
कवच लेकर देवराज ने
किया हर योद्धा को समान था,
सूर्य देव के पक्षपात का
किया तुल्य समाधान था।
माता के तप से शरीर को वज्र बनाया
यह कैसा क्षत्रिय धर्म है,
साहस था तो खुद के सामर्थ्य से लड़ता
यही सच्चे योद्धा का कर्म है।
दुर्योधन की जंघा तोड़ी
माता के तप से वज्र शरीर जब उसने पाया था,
धर्म विजय की खातिर माधव ने
धर्म से ज्यादा कर्म को श्रेष्ठ बताया था।
यही कर्म जो पहले समझ मैं जाता
कोमल हृदय पर घाव ना लगता,
धर्म से पहले कर्म को रखता
तो पांचाली पर दांव ना लगता।
नारी का ना सम्मान है करते
पिता को सदा ये सताते हैं,
यह विचित्र कलयुगी लोग हैं माधव
धर्मराज को धर्म सिखाते हैं।
Видео Dharmraj Yudhishthir || A Poem about biggest DharmGyata by Deepankur Bhardwaj канала Deepankur Bhardwaj Poetry
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Poem Lyrics:
महाभारत का मैं वो पृष्ठ हूं
जिसे भुला ये समाज है,
धर्म धर्म का बोध तुम्हें
आज कराता धर्मराज है।
सशरीर स्वर्ग मिला
अडिग मेरा धर्म था,
रथ धरा पर न रहता था
ऐसा उच्च कोटि का कर्म था।
सशरीर स्वर्ग मिला
अडिग मेरा धर्म था,
रथ धरा पर न रहता था
ऐसा उच्च कोटि का कर्म था।
स्वार्थ से परे रहा
न किसी लोभ में जिया,
विष मेरे अनुज को दिया
ये कड़वा घूंट पी पिया।
अब धर्म की जो बात है
तो धर्म ही बताता हूं,
धर्म के विचित्र रूप का
दर्शन तुम्हें कराता हूं।
द्यूत का खेल खेला
तातश्री का मान था,
पिता के बाद तात थे पिता मेरे
पितृ धर्म का मुझको ज्ञान था।
ना छल की समझ थी
रहा धर्म के साथ सदा,
द्युत भी ना छोड़ पाऊं
ऐसे वचन में मैं जा बंधा।
मामाश्री ने कहा द्यूत का खेल खेलो
सामने भाई तुम्हारे कौरव हैं,
वचन था दांव लगेगा उस पर
जो चीज तुम्हारा गौरव है।
राजपाठ भी गया
आधिपत्य रहा ना एक भी गांव पर,
खेल नहीं वो प्रपंच था
भाई भी लगे दांव पर।
किसी एक धर्म की लाज रखता तो
दूसरे पर संकट गहराया था,
शास्त्रों में यही पक्ष
धर्मसंकट कहलाया था।
मामा शकुनि ने शब्दों में
ऐसा मुझे उलझाया था,
द्यूत के भंवर से मैं
निकल ही ना पाया था।
धर्म संकट में डाल कर
जीते थे कौरव मुझे,
अरे दांव पर लगाए भाई क्योंकि
उन पर राज्य से अधिक था गौरव मुझे।
लगाया पांचाली को दांव पर
मेरी आत्मा को मुझसे क्रोध था,
पर कुलवधू का भी अपमान होगा
ऐसा मुझे ना बोध था।
किंतु धर्म अधर्म की तुला पकड़ने वाले
होते हो कौन तुम,
लेते द्रौपदी का पक्ष हो
और बेटियों की हत्या पर रहते हो मोन तुम।
धर्म की तो बात दूर
विचित्र तुम्हारी न्याय प्रणाली है,
न्याय की कैसी विचित्र तुमने
परिभाषा बना डाली है।
निर्वस्त्र था मैं जगत में आया
सभी निर्वस्त्र जगत में आते हैं,
फिर एक देव अपने पुत्र को जन्म से
अभेद्य कवच कुंडल दे जाते हैं।
अब ज़रा मुझे तुम बतला दो
न्याय का कौन सा ये अध्याय है,
मुझे प्रतीत होता ये
हर जातक से अन्याय है।
कवच लेकर देवराज ने
किया हर योद्धा को समान था,
सूर्य देव के पक्षपात का
किया तुल्य समाधान था।
माता के तप से शरीर को वज्र बनाया
यह कैसा क्षत्रिय धर्म है,
साहस था तो खुद के सामर्थ्य से लड़ता
यही सच्चे योद्धा का कर्म है।
दुर्योधन की जंघा तोड़ी
माता के तप से वज्र शरीर जब उसने पाया था,
धर्म विजय की खातिर माधव ने
धर्म से ज्यादा कर्म को श्रेष्ठ बताया था।
यही कर्म जो पहले समझ मैं जाता
कोमल हृदय पर घाव ना लगता,
धर्म से पहले कर्म को रखता
तो पांचाली पर दांव ना लगता।
नारी का ना सम्मान है करते
पिता को सदा ये सताते हैं,
यह विचित्र कलयुगी लोग हैं माधव
धर्मराज को धर्म सिखाते हैं।
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11 июня 2021 г. 22:14:28
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