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जूट (पटसन) की खेती पश्चिमबंगाल और बांग्लादेश में होती हैं। देखते हैं इसका संघर्ष और की जमीनी सचाई।

जूट (पटसन) की खेती पश्चिमबंगाल और बांग्लादेश में होती हैं। देखते हैं इसका संघर्ष और की जमीनी सचाई।

पश्चिमबंगाल और बांग्लादेश के प्रमुख भागों पटसन की खेती में सामिल कर रहे हैं । चीन, थाईलैंड, म्यांमार, नेपाल और भूटान जैसे देशों में भी जूट की खेती । खेती. पटसन एक फसल है,

जूट की खेती हेतु गर्म तथा नम जलवायु की आवश्यकता होती है। 100 से 200 से०मी० वर्षा तथा 24 से 35 डिग्री सेंटीग्रेड तापक्रम उपयुक्त है। जूट के रेशे से ब्रिग बैग्स कनवास टिवस्ट एवं यार्न के अलावा कम्बल दरी कालीन ब्रुश एवं रस्सियां आदि तैयार की जाती हैं। जूट के डंठल से चारकोल एवं गन पाउडर बनाया जाता है।

मिट्टी पलटने वाले हल से एक जुताई तथा बाद में 2-3 जुताइयां देशी हल या कल्टीवेटर से करके पाटा लगाकर भूमि को भुरभुरा बनाकर खेत बुवाई के लिए तैयार किया जाता है। चूंकि जूट का बीज बहुत छोटा होता है इसलिए मिट्टी का भुरभुरा होना आवश्यक है ताकि बीज का जमाव अच्छा हो। भूमि में उपयुक्त नमी जमाव के लिए अच्छी समझी जाती है।
ऐसी भूमि जो समतल हो जिसमें पानी का निकास अच्छा हो साथ की साथ पानी रोकने की पर्याप्त क्षमता वाली दोमट तथा मटियार दोमट भूमि इसकी।

जूट की खेती व्यापारिक इस्तेमाल के लिए नगदी फसल के रूप में की जाती है. जूट का पौधा रेशेदार पौधा होता है. जिसे पटसन के नाम से भी जाना जाता है. इसके पौधे की लम्बाई 6 से 10 फिट तक पाई जाती है. इसके पौधे को सडाकर इसके रेशे तैयार किये जाते हैं. जिनसे कई चीजें बनाई जाती है. इसके रेशों का इस्तेमाल बोरे, दरी, टाट, तम्बू, तिरपाल, रस्सियाँ, निम्न कोटि के कपड़े और कागज बनाने में किया जाता हैं.

जूट की पैदावार गर्म और आद्र जलवायु वाली जगहों पर की जाती है. इसकी खेती के लिए हवा ने नमीं की आवश्यकता होती है. क्योंकि हवा में नमी होने से इसके रेशे अच्छे बने रहते हैं. इसकी खेती के लिए बलुई दोमट मिट्टी उपयुक्त होती है. विश्व में भारत इसका सबसे बड़ा उत्पादक देश बना हुआ है. लेकिन उत्पादन का लगभग 70 प्रतिशत उपयोग भारत में ही हो जाता है.

अगर आप भी जूट की खेती करने का मन बना रहे हैं तो आज हम आपको इसके बारें में सम्पूर्ण जानकारी देने वाले हैं.

उपयुक्त मिट्टी

जूट की खेती के लिए हल्की बलुई और दोमट मिट्टी उपयुक्त होती है. अधिक जल भराव वाली जमीन में इसकी खेती करना उचित नही होता. क्योंकि अधिक टाइम तक पानी के भरे रहने से पौधे के नष्ट होने और गुणवत्ता में कमी आने का जोखिम होता है. इसकी खेती के लिए जमीन का पी.एच. मान सामान्य होना चाहिए.

जलवायु और तापमान

जूट की खेती के लिए गर्म और आद्र जलवायु उपयुक्त होती है. इसके पौधों को बारिश की जरूरत होती है. लेकिन असामान्य बारिश इसकी पैदावार को नुक्सान पहुँचाती है. इसकी पैदावार गर्मी और बरसात के मौसम में की जाती है. इस कारण सर्दी का प्रभाव इसकी फसल पर देखने की नही मिलता.
पटसन के पौधे को अंकुरित होने के लिए 20 से 25 डिग्री तापमान की जरूरत होती है. और अंकुरित होने के बाद इसका पौधा 35 डिग्री से ज्यादा तापमान की सहन कर सकता है.
उन्नत किस्में

जूट की कई उन्नत किस्में मौजूद हैं. लेकिन इन सभी किस्मों को दो प्रजातियों में बांटा गया है. जिनकी पैदावार उनकी बुवाई, कटाई और रखरखाव पर निर्भर करती है.
कैपसुलेरिस प्रजाति

इस प्रजाति के जूट को सफ़ेद जूट के नाम से जाना जाता है. इसकी खेती ज्यादातर नीची भूमि में की जाती है.

उसके बाद खेत में गोबर की खाद डालकर उसे कल्टीवेटर के माध्यम से दो से तीन तिरछी जुताई कर मिट्टी में अच्छे से मिला दें. खाद को मिट्टी में मिलाने के बाद खेत में पानी चला दें. पानी चलाने के कुछ दिन बाद जब खेत में खरपतवार निकलने लगे तब खेत की रोटावेटर के माध्यम से जुताई कर दें. इससे मिट्टी नमी युक्त और भुरभुरी हो जाती है. नमी युक्त भुरभुरी मिट्टी बीजों के अंकुरण की क्षमता में वृद्धि करती है और बीज अच्छे से अंकुरित होते हैं.

पानी में बंडलों को 20 से 25 दिन तक डुबोने के बाद इन्हें बहार निकाला जाता है. जिसके बाद इन सड़े हुए पौधों से रेशों को निकालकर उन्हें बहते हुए पानी में धोकर साफ़ कर लिया जाता हैं. रेशों को साफ़ करने के बाद उन्हें किसी लकड़ी पर तीन से चार दिन तक तेज़ धूप में सूखाते हैं. तेज़ धूप में रेशों को सुखाने के दौरान उन्हें बार बार उल्टते पलटते रहना चाहिए. ताकि रेशे अच्छे से सुख जाए और उनमें नमी की मात्रा ज्यादा ना रहे. क्योंकि नमी ज्यादा रहने पर रेशे खराब हो जाते हैं.

इसके रेशों को सूखने के बाद इन्हें बंडल के रूप में संग्रहित कर लिया जाता है. क्योंकि ज्यादा टाइम तक बिखरे हुए रेशों में गुणवत्ता की कमी हो जाती है. और वो कमजोर हो जाते हैं. जिनका बाज़ार भाव भी अच्छा नही मिलता है.

जूट की खेती लगभग पांच महीने की होती है. इसके पौधों की उचित देखभाल कर इसकी एक हेक्टेयर से 30 से 35 मन पैदावार प्राप्त की जा सकती है. जिससे किसान भाई एक बार में लगभग 60 से 80 हज़ार तक की कमाई कर सकता हैं.

जिसका असर पैदावार पर पड़ता है. पटसन यानी जूट उद्योग, देश के पूर्वी क्षेत्र की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है । इस समय लगभग 4 लाख छोटे और सीमांत किसान जूट और मेस्ता की खेती कर रहे हैं । लगभग 2.61 लाख कामगार जूट उद्योग में काम कर रहे हैं ।

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24 августа 2020 г. 13:05:12
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