राधा-उद्धव-संवाद 🙏
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श्रीनारायण कहते हैं-नारद! उद्धवद्वारा किये गये स्तवनको सुनकर राधिकाकी चेतना लौट आयी। तब वे विषादग्रस्त हो उद्भवको श्रीकृष्णके सदृश आकारवाला देखकर बोलीं ।
श्रीराधिकाने कहा-वत्स! तुम्हारा क्या नाम है ? किसने तुम्हें भेजा है ? तुम कहाँसे आये हो? तुम्हारे यहाँ आनेका क्या कारण है? यह सब मुझे बतलाओ। तुम्हारा सर्वाङ्ग श्रीकृष्णकी आकृतिसे मिलता-जुलता है; अतः मैं समझती हूँ कि तुम श्रीकृष्णके पार्षद हो । अब तुम बलदेव और श्रीकृष्णका कुशल- समाचार वर्णन करो। साथ ही यह भी बतलाओ कि नन्दजी किस कारणसे वहीं ठहरे हुए हैं? क्या श्रीकृष्ण इस रमणीय वृन्दावनमें फिर आयेंगे ? क्या मैं उनके पूर्णिमाके चन्द्रमाके समान सुन्दर मुखका पुनः दर्शन करूँगी तथा रासमण्डलमें उनके साथ पुनः क्रीड़ा करूँगी ? क्या सखियोंके साथ पुनः जल- विहार हो सकेगा? और क्या श्रीनन्दनन्दनके शरीरमें पुनः चन्दन लगा पाऊँगी ?
उद्धव बोले- सुमुखि ! मैं क्षत्रिय हूँ। मेरा नाम उद्धव है। तुम्हारा शुभ समाचार जाननेके लिये परमात्मा श्रीकृष्णने मुझे भेजा है; इसीलिये मैं तुम्हारे पास आया हूँ। मैं श्रीहरिका पार्षद भी हूँ। इस समय श्रीकृष्ण, बलदेव और नन्दजी कुशलसे हैं।
श्रीराधिकाने कहा- -उद्धव ! इस समय भी यमुनातट वही है, सुगन्धित मलय पवन भी वही है, उनके केलि-कदम्बोंका मूल भी वहीं है, उनका अभीष्ट पुण्यमय रमणीय वृन्दावन भी विद्यमान है। वही पुंस्कोकिलोंकी बोली, चन्दनचर्चित शय्या, चारों प्रकारके भोज्य पदार्थ, सुन्दर मधुपान तथा दुरन्त एवं दुःखद पापात्मा मन्मथ भी वही मौजूद है। रासमण्डलमें वे रत्नप्रदीप अभी भी जलते हैं, उत्तम मणियोंका बना हुआ रतिमन्दिर भी है ही, गोपाङ्गनाओंका समूह भी विद्यमान है, पूर्णिमाका चन्द्रमा भी सुशोभित हो रहा है और सुगन्धित पुष्पोंद्वारा रचित चन्दनचर्चित शय्या भी है। रति-भोगके योग्य कर्पूर आदिसे सुवासित पानका बीड़ा, सुगन्धित मालतीको मालाएँ, श्वेत चँवर, दर्पण, जिसमें मोती और मणि जड़े हुए हैं ऐसे हीरेके मनोहर हार, अनेकों रमणीय उपकानन, सुन्दर क्रीड़ा-सरोवर, सुगन्धित पुष्पोंकी वाटिका, कमलोंकी मनोहर पंक्ति आदि सभी वैभव विद्यमान हैं (यह सब हैं); परंतु मेरे प्राणनाथ कहाँ हैं ? हा कृष्ण ! हा रमानाथ ! हा मेरे प्राणवल्लभ ! तुम कहाँ हो ? मुझ दासीसे कौन- सा अपराध हो गया है ? हुआ ही होगा; क्योंकि यह दासी तो पग-पगपर अपराध करनेवाली है।
इतना कहकर राधिका देवी पुनः मूच्छित हो गयीं। तब उद्भवने पुनः उन्हें चैतन्य कराया। उनकी उस दशाको देखकर क्षत्रियश्रेष्ठ उद्धवको परम आश्चर्य हुआ। उस समय सात सखियाँ
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श्रीनारायण कहते हैं-नारद! उद्धवद्वारा किये गये स्तवनको सुनकर राधिकाकी चेतना लौट आयी। तब वे विषादग्रस्त हो उद्भवको श्रीकृष्णके सदृश आकारवाला देखकर बोलीं ।
श्रीराधिकाने कहा-वत्स! तुम्हारा क्या नाम है ? किसने तुम्हें भेजा है ? तुम कहाँसे आये हो? तुम्हारे यहाँ आनेका क्या कारण है? यह सब मुझे बतलाओ। तुम्हारा सर्वाङ्ग श्रीकृष्णकी आकृतिसे मिलता-जुलता है; अतः मैं समझती हूँ कि तुम श्रीकृष्णके पार्षद हो । अब तुम बलदेव और श्रीकृष्णका कुशल- समाचार वर्णन करो। साथ ही यह भी बतलाओ कि नन्दजी किस कारणसे वहीं ठहरे हुए हैं? क्या श्रीकृष्ण इस रमणीय वृन्दावनमें फिर आयेंगे ? क्या मैं उनके पूर्णिमाके चन्द्रमाके समान सुन्दर मुखका पुनः दर्शन करूँगी तथा रासमण्डलमें उनके साथ पुनः क्रीड़ा करूँगी ? क्या सखियोंके साथ पुनः जल- विहार हो सकेगा? और क्या श्रीनन्दनन्दनके शरीरमें पुनः चन्दन लगा पाऊँगी ?
उद्धव बोले- सुमुखि ! मैं क्षत्रिय हूँ। मेरा नाम उद्धव है। तुम्हारा शुभ समाचार जाननेके लिये परमात्मा श्रीकृष्णने मुझे भेजा है; इसीलिये मैं तुम्हारे पास आया हूँ। मैं श्रीहरिका पार्षद भी हूँ। इस समय श्रीकृष्ण, बलदेव और नन्दजी कुशलसे हैं।
श्रीराधिकाने कहा- -उद्धव ! इस समय भी यमुनातट वही है, सुगन्धित मलय पवन भी वही है, उनके केलि-कदम्बोंका मूल भी वहीं है, उनका अभीष्ट पुण्यमय रमणीय वृन्दावन भी विद्यमान है। वही पुंस्कोकिलोंकी बोली, चन्दनचर्चित शय्या, चारों प्रकारके भोज्य पदार्थ, सुन्दर मधुपान तथा दुरन्त एवं दुःखद पापात्मा मन्मथ भी वही मौजूद है। रासमण्डलमें वे रत्नप्रदीप अभी भी जलते हैं, उत्तम मणियोंका बना हुआ रतिमन्दिर भी है ही, गोपाङ्गनाओंका समूह भी विद्यमान है, पूर्णिमाका चन्द्रमा भी सुशोभित हो रहा है और सुगन्धित पुष्पोंद्वारा रचित चन्दनचर्चित शय्या भी है। रति-भोगके योग्य कर्पूर आदिसे सुवासित पानका बीड़ा, सुगन्धित मालतीको मालाएँ, श्वेत चँवर, दर्पण, जिसमें मोती और मणि जड़े हुए हैं ऐसे हीरेके मनोहर हार, अनेकों रमणीय उपकानन, सुन्दर क्रीड़ा-सरोवर, सुगन्धित पुष्पोंकी वाटिका, कमलोंकी मनोहर पंक्ति आदि सभी वैभव विद्यमान हैं (यह सब हैं); परंतु मेरे प्राणनाथ कहाँ हैं ? हा कृष्ण ! हा रमानाथ ! हा मेरे प्राणवल्लभ ! तुम कहाँ हो ? मुझ दासीसे कौन- सा अपराध हो गया है ? हुआ ही होगा; क्योंकि यह दासी तो पग-पगपर अपराध करनेवाली है।
इतना कहकर राधिका देवी पुनः मूच्छित हो गयीं। तब उद्भवने पुनः उन्हें चैतन्य कराया। उनकी उस दशाको देखकर क्षत्रियश्रेष्ठ उद्धवको परम आश्चर्य हुआ। उस समय सात सखियाँ
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