कुब्जापर कृपा, मालीको वरदान, धोबीका उद्धार, धनुर्भङ्ग, हाथीका वध,🙏
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श्रीनारायण कहते हैं- नारद! जब वायुसे सुवासित, चन्दननिर्मित और फूलोंसे बिछी हुई शय्यापर राधिकाजी सो गयीं तथा गोपिकाएँ भी गाढ़ निद्रामें निमग्न हो गयीं, तब रातमें तीसरे पहरके बीत जानेपर शुभ बेलामें शुभ नक्षत्रसे चन्द्रमाका संयोग होनेपर अमृतयोगसे युक्त लग्न आया । लग्नके स्वामी शुभ ग्रहोंमेंसे कोई एक अथवा बुध थे। उस लग्नपर शुभ ग्रहोंकी दृष्टि थी । पापग्रहोंके संयोगसे जो दुर्योग या दोष आदि प्राप्त होते हैं, उनका उस लग्नमें सर्वथा अभाव था। ऐसे समयमें श्रीहरिने स्वयं उठकर माता यशोदाको जगाया, मङ्गल-कृत्य करवाया और बन्धुजनोंको आश्वासन दिया। जो विश्व-ब्रह्माण्डके स्वतन्त्र कर्ता और स्वतन्त्र पालक हैं, उन्हीं भगवान्ने राधिकाजीके भयसे भीत-से होकर बाजा बजानेकी मनाही कर दी। वे दोनों पैर धोकर दो शुद्ध वस्त्र धारण करके चन्दन आदिसे लिपे हुए शुद्ध स्थानमें बैठे। उनके वामभागमें चन्दन आदिसे सुसज्जित तथा फल और पल्लवसे युक्त भरा हुआ कलश रखा गया। दाहिने भागमें प्रज्वलित अग्नि तथा ब्राह्मणदेवता उपस्थित हुए। सामने पति - पुत्रवती सती साध्वी स्त्री, प्रज्वलित दीपक और दर्पण प्रस्तुत किये गये। पुरोहितजीने सुस्निग्ध दूर्वाकाण्ड, श्वेत पुष्प तथा शुभसूचक श्वेत धान्य श्यामसुन्दरके हाथमें दिये। उन सबको लेकर उन्होंने मस्तकपर रख लिया। तत्पश्चात् श्रीहरिने घी, मधु, चाँदी, सोना और | दहीके दर्शन किये। ललाटमें चन्दनका लेप करके गलेमें पुष्पमाला धारण की। गुरुजनों तथा ब्राह्मणके चरणोंमें भक्तिभावसे मस्तक झुकाया और शङ्खध्वनि, | वेदपाठ, संगीत, मङ्गलाष्टक एवं ब्राह्मणके मनोहर आशीर्वाद बड़े आदरके साथ सुने । सर्वत्र मङ्गल प्रदान करनेवाले अपने ही मङ्गलमय स्वरूपका ध्यान करके उन्होंने परम सुन्दर दाहिने पैरको आगे बढ़ाया। नासिकाके वामभागसे वायुको भीतर भरकर भगवान्ने मध्यमा अंगुलिसे वामरन्ध्रको दबाया और नाकके दाहिने छिद्रसे उस वायुको बाहर निकाल दिया। तत्पश्चात् नन्दनन्दन नन्दके श्रेष्ठ प्राङ्गणमें सानन्द आये। वे परमानन्दमय, नित्यानन्दस्वरूप तथा सनातन हैं। नित्य-अनित्य सब उन्हींके रूप हैं। वे नित्यबीजस्वरूप, नित्यविग्रह, नित्याङ्गभूत, नित्येश तथा नित्यकृत्यविशारद हैं। उनके रूप, यौवन, वेश-भूषा तथा किशोर- अवस्था- सभी नित्य नूतन हैं। उनके सम्भाषण, प्रेम-प्राप्ति, सौभाग्य, सुधा रससे सराबोर मीठे वचन, भोजन तथा पद भी नित्य नवीन हैं। इस अत्यन्त रमणीय प्राङ्गणमें खड़े-खड़े मायायुक्त मायेश्वर अत्यन्त स्नेहमें डूब गये। तत्पश्चात् वे वहाँसे जानेको उद्यत हुए। केलेके सुन्दर खम्भों और रेशमी डोरेमें गुंथे हुए आम्र-पल्लवोंकी बन्दनवारोंसे उस आँगनको सजाया गया था। विश्वकर्माने उसकी फर्शमें पद्मराग मणि जड़ दी थी। कस्तूरी, केसर और चन्दनसे उसका संस्कार किया गया था। अक्रूर तथा बान्धवजनोंसहित श्रीकृष्ण स्वयं वहाँ थोड़ी देर खड़े रहे। यशोदाने वाय ओरसे और आनन्दयुक्त नन्दने दाहिनी ओरसे आकर अपने लालाको हृदयसे लगा लिया। बन्धु बान्धवोंने उनसे प्रेमभरी बातें कीं तथा मैया और बाबाने लालाका मुँह चूमा। मुने! तदनन्तर श्रीकृष्ण गुरुजनोंको नमस्कार करके आँगनसे बाहर निकले और स्वर्गीय रथपर आरूढ़ हो सुन्दर मथुरापुरीकी ओर चल दिये। मथुरा अपनी शोभासे इन्द्रकी अमरावतीपुरीको परास्त करके अत्यन्त मनोहर दिखायी देती थी। श्रीकृष्णने अक्रूर तथा सखाओंके साथ उस रमणीय नगरीमें प्रवेश किया। श्रेष्ठ रत्नोंसे खचित और विश्वकर्माद्वारा रचित मथुरापुरी सुन्दर बहुमूल्य रत्ननिर्मित कलशोंसे सुशोभित थी। सैकड़ों सुन्दर, श्रेष्ठ और अभीष्ट राजमार्गों से वह नगरी घिरी हुई थी। वे राजमार्ग चन्द्रकान्त मणियोंके सारभागसे जटित होनेके कारण चन्द्रमाके समान ही प्रकाशित होते थे। वहाँ विचित्र मणियोंके सारतत्त्वसे शत-शत वीथियोंका निर्माण किया गया था। पुण्य वस्तुओंके संचयसे सम्पन्न श्रेष्ठ व्यवसायी अपनी दूकानोंसे उन राजमार्गोंकी शोभा बढ़ाते थे। पुरीके चारों ओर सहस्रों सरोवर शोभा दे रहे थे, जो शुद्ध स्फटिकमणिके समान उज्वल तथा पद्मरागमणियोंकी दीप्तिसे देदीप्यमान थे। रत्नमय अलंकारों एवं आभूषणोंसे विभूषित पद्मिनी जातिकी श्रेष्ठ सुन्दरियोंसे वह नगरी शोभायमान थी। वे सब सुन्दरियाँ सुस्थिर यौवनसे युक्त थीं और श्रीकृष्ण दर्शनकी लालसासे मुँह ऊपर उठाये अपलक नेत्रोंसे राजमार्गकी ओर देख रही थीं। उनके हाथोंमें अक्षतपुञ्ज थे। असंख्य रत्ननिर्मित रथ पुरीकी शोभा बढ़ाते थे। अनेक प्रकारके विचित्र भूषणोंसे उन रथोंको विभूषित एवं चित्रित किया गया था। बहुत-से पुष्पोद्यान, जो भाँति-भाँतिके पुष्पोंसे भरे थे और जिनमें भ्रमर रसास्वादन करते थे, मथुरापुरीकी श्रेयोवृद्धि कर रहे थे। माधुर्य मधुसे युक्त, मधुलोभी तथा मधुमत्त मधुकर मधुकरियोंके समूहसे संयुक्त हो उन उद्यानोंमें आनन्दका अनुभव कर रहे थे। नगरके चारों ओर अनेक प्रकारके दुर्ग थे, जिनके कारण शत्रुओंका वहाँ पहुँचना अत्यन्त कठिन था। रक्षाशास्त्र-विशारद रक्षकोंसे वह पुरी सदा सुरक्षित थी। विश्वकर्माद्वारा श्रेष्ठ एवं विचित्र रत्नोंसे रचित अगणित अट्टालिकाओंसे संयुक्त मथुरानगरी बड़ी मनोहर जान पड़ती थी। इस प्रकार मथुरापुरीकी शोभा देख आगे बढ़ते हुए कमलनयन श्रीकृष्णने मार्गमें कुब्जाको देखा, जो अत्यन्त जराजीर्ण एवं वृद्धा-सी थी। डंडेके सहारे चलती थी। अत्यन्त झुकी हुई थी और झुर्रियाँ लटक रही थीं। उसकी आकृति रूखी और विकृत थी। वह कस्तूरी और केसर मिला हुआ चन्दनका अनुलेपन लिये आ रही थी, जिसके स्पर्शमात्रसे शरीर सुगन्धित, सुस्निग्ध तथा अत्यन्त मनोहर हो जाता था। उस वृद्धाने शान्त,ऐश्वर्ययुक्त, श्रीसम्पन्न, श्रीनिवास, श्रीबीज एवं श्रीनिकेतन श्यामसुन्दर श्रीवल्लभको मन्द मुस्कानके साथ देखा। देखते ही उसके दोनों हाथ जुड़ गये। वह भक्तिसे विनीत हो गयी और सहसा चरणोंमें सिर रखकर उसने प्रणाम किया। साथ ही उनके श्याम मनोहर अङ्गमें चन्दन लगाया।
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श्रीनारायण कहते हैं- नारद! जब वायुसे सुवासित, चन्दननिर्मित और फूलोंसे बिछी हुई शय्यापर राधिकाजी सो गयीं तथा गोपिकाएँ भी गाढ़ निद्रामें निमग्न हो गयीं, तब रातमें तीसरे पहरके बीत जानेपर शुभ बेलामें शुभ नक्षत्रसे चन्द्रमाका संयोग होनेपर अमृतयोगसे युक्त लग्न आया । लग्नके स्वामी शुभ ग्रहोंमेंसे कोई एक अथवा बुध थे। उस लग्नपर शुभ ग्रहोंकी दृष्टि थी । पापग्रहोंके संयोगसे जो दुर्योग या दोष आदि प्राप्त होते हैं, उनका उस लग्नमें सर्वथा अभाव था। ऐसे समयमें श्रीहरिने स्वयं उठकर माता यशोदाको जगाया, मङ्गल-कृत्य करवाया और बन्धुजनोंको आश्वासन दिया। जो विश्व-ब्रह्माण्डके स्वतन्त्र कर्ता और स्वतन्त्र पालक हैं, उन्हीं भगवान्ने राधिकाजीके भयसे भीत-से होकर बाजा बजानेकी मनाही कर दी। वे दोनों पैर धोकर दो शुद्ध वस्त्र धारण करके चन्दन आदिसे लिपे हुए शुद्ध स्थानमें बैठे। उनके वामभागमें चन्दन आदिसे सुसज्जित तथा फल और पल्लवसे युक्त भरा हुआ कलश रखा गया। दाहिने भागमें प्रज्वलित अग्नि तथा ब्राह्मणदेवता उपस्थित हुए। सामने पति - पुत्रवती सती साध्वी स्त्री, प्रज्वलित दीपक और दर्पण प्रस्तुत किये गये। पुरोहितजीने सुस्निग्ध दूर्वाकाण्ड, श्वेत पुष्प तथा शुभसूचक श्वेत धान्य श्यामसुन्दरके हाथमें दिये। उन सबको लेकर उन्होंने मस्तकपर रख लिया। तत्पश्चात् श्रीहरिने घी, मधु, चाँदी, सोना और | दहीके दर्शन किये। ललाटमें चन्दनका लेप करके गलेमें पुष्पमाला धारण की। गुरुजनों तथा ब्राह्मणके चरणोंमें भक्तिभावसे मस्तक झुकाया और शङ्खध्वनि, | वेदपाठ, संगीत, मङ्गलाष्टक एवं ब्राह्मणके मनोहर आशीर्वाद बड़े आदरके साथ सुने । सर्वत्र मङ्गल प्रदान करनेवाले अपने ही मङ्गलमय स्वरूपका ध्यान करके उन्होंने परम सुन्दर दाहिने पैरको आगे बढ़ाया। नासिकाके वामभागसे वायुको भीतर भरकर भगवान्ने मध्यमा अंगुलिसे वामरन्ध्रको दबाया और नाकके दाहिने छिद्रसे उस वायुको बाहर निकाल दिया। तत्पश्चात् नन्दनन्दन नन्दके श्रेष्ठ प्राङ्गणमें सानन्द आये। वे परमानन्दमय, नित्यानन्दस्वरूप तथा सनातन हैं। नित्य-अनित्य सब उन्हींके रूप हैं। वे नित्यबीजस्वरूप, नित्यविग्रह, नित्याङ्गभूत, नित्येश तथा नित्यकृत्यविशारद हैं। उनके रूप, यौवन, वेश-भूषा तथा किशोर- अवस्था- सभी नित्य नूतन हैं। उनके सम्भाषण, प्रेम-प्राप्ति, सौभाग्य, सुधा रससे सराबोर मीठे वचन, भोजन तथा पद भी नित्य नवीन हैं। इस अत्यन्त रमणीय प्राङ्गणमें खड़े-खड़े मायायुक्त मायेश्वर अत्यन्त स्नेहमें डूब गये। तत्पश्चात् वे वहाँसे जानेको उद्यत हुए। केलेके सुन्दर खम्भों और रेशमी डोरेमें गुंथे हुए आम्र-पल्लवोंकी बन्दनवारोंसे उस आँगनको सजाया गया था। विश्वकर्माने उसकी फर्शमें पद्मराग मणि जड़ दी थी। कस्तूरी, केसर और चन्दनसे उसका संस्कार किया गया था। अक्रूर तथा बान्धवजनोंसहित श्रीकृष्ण स्वयं वहाँ थोड़ी देर खड़े रहे। यशोदाने वाय ओरसे और आनन्दयुक्त नन्दने दाहिनी ओरसे आकर अपने लालाको हृदयसे लगा लिया। बन्धु बान्धवोंने उनसे प्रेमभरी बातें कीं तथा मैया और बाबाने लालाका मुँह चूमा। मुने! तदनन्तर श्रीकृष्ण गुरुजनोंको नमस्कार करके आँगनसे बाहर निकले और स्वर्गीय रथपर आरूढ़ हो सुन्दर मथुरापुरीकी ओर चल दिये। मथुरा अपनी शोभासे इन्द्रकी अमरावतीपुरीको परास्त करके अत्यन्त मनोहर दिखायी देती थी। श्रीकृष्णने अक्रूर तथा सखाओंके साथ उस रमणीय नगरीमें प्रवेश किया। श्रेष्ठ रत्नोंसे खचित और विश्वकर्माद्वारा रचित मथुरापुरी सुन्दर बहुमूल्य रत्ननिर्मित कलशोंसे सुशोभित थी। सैकड़ों सुन्दर, श्रेष्ठ और अभीष्ट राजमार्गों से वह नगरी घिरी हुई थी। वे राजमार्ग चन्द्रकान्त मणियोंके सारभागसे जटित होनेके कारण चन्द्रमाके समान ही प्रकाशित होते थे। वहाँ विचित्र मणियोंके सारतत्त्वसे शत-शत वीथियोंका निर्माण किया गया था। पुण्य वस्तुओंके संचयसे सम्पन्न श्रेष्ठ व्यवसायी अपनी दूकानोंसे उन राजमार्गोंकी शोभा बढ़ाते थे। पुरीके चारों ओर सहस्रों सरोवर शोभा दे रहे थे, जो शुद्ध स्फटिकमणिके समान उज्वल तथा पद्मरागमणियोंकी दीप्तिसे देदीप्यमान थे। रत्नमय अलंकारों एवं आभूषणोंसे विभूषित पद्मिनी जातिकी श्रेष्ठ सुन्दरियोंसे वह नगरी शोभायमान थी। वे सब सुन्दरियाँ सुस्थिर यौवनसे युक्त थीं और श्रीकृष्ण दर्शनकी लालसासे मुँह ऊपर उठाये अपलक नेत्रोंसे राजमार्गकी ओर देख रही थीं। उनके हाथोंमें अक्षतपुञ्ज थे। असंख्य रत्ननिर्मित रथ पुरीकी शोभा बढ़ाते थे। अनेक प्रकारके विचित्र भूषणोंसे उन रथोंको विभूषित एवं चित्रित किया गया था। बहुत-से पुष्पोद्यान, जो भाँति-भाँतिके पुष्पोंसे भरे थे और जिनमें भ्रमर रसास्वादन करते थे, मथुरापुरीकी श्रेयोवृद्धि कर रहे थे। माधुर्य मधुसे युक्त, मधुलोभी तथा मधुमत्त मधुकर मधुकरियोंके समूहसे संयुक्त हो उन उद्यानोंमें आनन्दका अनुभव कर रहे थे। नगरके चारों ओर अनेक प्रकारके दुर्ग थे, जिनके कारण शत्रुओंका वहाँ पहुँचना अत्यन्त कठिन था। रक्षाशास्त्र-विशारद रक्षकोंसे वह पुरी सदा सुरक्षित थी। विश्वकर्माद्वारा श्रेष्ठ एवं विचित्र रत्नोंसे रचित अगणित अट्टालिकाओंसे संयुक्त मथुरानगरी बड़ी मनोहर जान पड़ती थी। इस प्रकार मथुरापुरीकी शोभा देख आगे बढ़ते हुए कमलनयन श्रीकृष्णने मार्गमें कुब्जाको देखा, जो अत्यन्त जराजीर्ण एवं वृद्धा-सी थी। डंडेके सहारे चलती थी। अत्यन्त झुकी हुई थी और झुर्रियाँ लटक रही थीं। उसकी आकृति रूखी और विकृत थी। वह कस्तूरी और केसर मिला हुआ चन्दनका अनुलेपन लिये आ रही थी, जिसके स्पर्शमात्रसे शरीर सुगन्धित, सुस्निग्ध तथा अत्यन्त मनोहर हो जाता था। उस वृद्धाने शान्त,ऐश्वर्ययुक्त, श्रीसम्पन्न, श्रीनिवास, श्रीबीज एवं श्रीनिकेतन श्यामसुन्दर श्रीवल्लभको मन्द मुस्कानके साथ देखा। देखते ही उसके दोनों हाथ जुड़ गये। वह भक्तिसे विनीत हो गयी और सहसा चरणोंमें सिर रखकर उसने प्रणाम किया। साथ ही उनके श्याम मनोहर अङ्गमें चन्दन लगाया।
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26 апреля 2023 г. 8:06:39
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