रामानंद सागर कृत श्री कृष्ण भाग 81 - द्रौपदी जन्म की कथा | द्रौपदी का स्वयंवर
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बजरंग बाण | पाठ करै बजरंग बाण की हनुमत रक्षा करै प्राण की | जय श्री हनुमान | तिलक प्रस्तुति 🙏
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Ramanand Sagar's Shree Krishna Episode 81 - Draupadi Janma Ki Katha. Draupadi Ka Swayamvar.
पुराणों में ऐसी पाँच स्त्रियों का वर्णन है जिन्हें स्त्री जाति का गौरव माना जाता है। पहली अहिल्या अर्थात गौतम ऋषि की पत्नी जिनका उद्धार भगवान श्रीराम द्वारा किया गया था। दूसरी द्रौपदी, पांचों पाण्डवों की पत्नी। तीसरी तारा, वानरराज बालि की पत्नी। चौथी महारानी कुन्ती, महाराज पाण्डु की पत्नी। फिर पांचवीं मन्दोदरी, लंकापति रावण की पत्नी। इन पंचकन्याओं का प्रातः स्मरण करने से पातकनाश होता है। इनमें से केवल द्रौपदी को भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी बहन बनाया था और चीर हरण के समय उसकी लाज बचायी थी। द्रौपदी के जन्म की कथा भी बहुत विचित्र है। द्रौपदी के पिता द्रुपद और द्रोण बचपन में एक ही आश्रम में पढ़ते थे। वहाँ उन दोनों में मित्रता हो गयी थी। समय बीतने पर दोनों बड़े हुए और द्रुपद पांचाल देश का राजा बना। एक दिन उसकी राजसभा में द्रोण आते हैं और उसे अपना मित्र कहते हैं। द्रुपद द्रोण को कड़ी फटकार लगाते हैं और कहते हैं मित्रता बराबर वालों में होती है, एक भिखारी और एक राजा में नहीं। इस अपमान से तिलमिलाऐ द्रोण कहते हैं कि अब मैं जिस दिन स्वयं को आपके बराबर कर लूँगा, उस दिन आपसे भेंट करूँगा। यह अपमान द्रोण की छाती में वर्षों तक सुलगता रहा। इसलिये जब पाण्डवों की शिक्षा पूरी हुई तो आचार्य द्रोण ने उनसे गुरु दक्षिणा माँगा कि पांचाल राज्य के राजा द्रुपद को बन्दी बनाकर मुझे सौंप दो। अर्जुन द्रुपद को युद्ध में हरा कर बन्दी बना लाते हैं। द्रोण द्रुपद से कहते हैं कि तुम युद्ध हार गये हो इसलिये तुम्हारे समस्त राज्य पर हम मेरा अधिकार हो गया है। किन्तु मुझे तुम्हारा आधा पांचाल राज्य चाहिये। बाकी आधा पांचाल राज्य तुम्हें लौटा देते हैं। इससे मेरी हैसियत तुम्हारे बराबर की हो जाती है। तो क्या अब मैं तुम्हें अपना मित्र कह सकता हूँ। द्रुपद अपनी पुरानी भूल के लिये क्षमा माँगता है। द्रोण द्रुपद को मित्र कहकर गले लगाते हैं किन्तु द्रुपद के चेहरे पर बदला लेने के भाव झलकते हैं। द्रुपद एक दिन दो ब्रह्मर्षियों याज और उपयाज के आश्रम में पहुँचे और उनसे विनती की कि मुझे सन्तान यज्ञ के द्वारा दो सन्ताने हों। एक पुत्र जो द्रोण का वध कर सके और दूसरी कन्या जिसका विवाह मैं अर्जुन जैसे श्रेष्ठ धनुर्धर से कर सकूँ। ब्रह्मर्षियों के यज्ञ करने से द्रुपद की दोनों इच्छाएं पूरी हुईं। यज्ञ कुण्ड से रथ पर आरूढ़ एक तेजस्वी युवक निकला जिसे पुत्र रूप में स्वीकार द्रुपद ने उसका नाम धृष्टद्युम्न रखा। इसके बाद द्रुपद को यज्ञ कुण्ड की अग्नि से एक दिव्य कन्या की प्राप्ति हुई। उसका नाम द्रौपदी रखा गया। राजकुल की रीति के अनुसार उसने पुत्री द्रौपदी का स्वयंवर रचा। इस स्वयंवर में आर्यावत के अनेक राजा आये। जिनमें शिशुपाल, शल्य, शकुनि, जरासंध, कर्ण और दुर्योधन भी थे। पांचो पाण्डव भी ब्राह्मण वेश में द्रौपदी के स्वयंवर में गये। पांचाल नरेश द्रुपद ने द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण और बलराम को इस स्वयंवर का विशेष निमन्त्रण भेजा। यह प्रथम अवसर है जब इस नर अवतार में श्रीकृष्ण पहली बार अर्जुन के सामने आते हैं। राजकुमार धृष्टद्युम्न स्वयंवर की शर्त बताता है कि एक घूमते चक्र के उपर छत से लटकती हुई एक मछली है। नीचे पांच बाण रखे हैं। इन बाणों से मछली की आँख को भेदना है। किन्तु एक शर्त यह भी है कि बाण का संधान नीचे रखे तेल के कढ़ाव में मछली की परछाई देखकर करना है। सबसे पहले दुर्योधन लक्ष्य भेदने के उठता है। बाण चलाना तो दूर वह वहाँ रखे दिव्य धनुष पर प्रत्यन्चा भी नहीं चढ़ा पाता। बूढ़ा मगध नरेश जरासंध विशालकाय धनुष उठाने में ही हाँफ जाता है और अपमानित होकर वापस लौटता है। इसके बाद कर्ण धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने में सफल होता है किन्तु इसके पहले पर बाण का संधान करता, द्रौपदी अपने स्थान पर खड़े होकर कहती हैं कि क्षत्रिय राजाओं, ब्राह्मणों और सम्राटों से भरी इस सभा में मैं एक सूतपुत्र से विवाह करने से इनकार करती हूँ। दुर्योधन अपने मित्र कर्ण का यूँ अपमान नहीं देख पाता और महाराज द्रुपद को सम्बोधित करते हुए कहता है कि उसका मित्र कर्ण अंगदेश का राजा है इसलिये वह इस स्वयंवर में भाग लेने का अधिकारी है। किन्तु कर्ण अपनी वीरोचित महानता का परिचय देता है और दुर्योधन से कहता है कि विवाह आपसी सहमति से होता है। यदि द्रौपदी मुझसे विवाह नहीं करना चाहती है तो मैं स्वयं को इस स्वयंवर से अलग करता हूँ। श्रीकृष्ण अपने आसन से खड़े होते हैं और कर्ण की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि शास्त्र भी कहता है कि विवाह में नारी की सहमति आवश्यक है। श्रीकृष्ण का समर्थन मिलने द्रौपदी प्रसन्न होती हैं।
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पुराणों में ऐसी पाँच स्त्रियों का वर्णन है जिन्हें स्त्री जाति का गौरव माना जाता है। पहली अहिल्या अर्थात गौतम ऋषि की पत्नी जिनका उद्धार भगवान श्रीराम द्वारा किया गया था। दूसरी द्रौपदी, पांचों पाण्डवों की पत्नी। तीसरी तारा, वानरराज बालि की पत्नी। चौथी महारानी कुन्ती, महाराज पाण्डु की पत्नी। फिर पांचवीं मन्दोदरी, लंकापति रावण की पत्नी। इन पंचकन्याओं का प्रातः स्मरण करने से पातकनाश होता है। इनमें से केवल द्रौपदी को भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी बहन बनाया था और चीर हरण के समय उसकी लाज बचायी थी। द्रौपदी के जन्म की कथा भी बहुत विचित्र है। द्रौपदी के पिता द्रुपद और द्रोण बचपन में एक ही आश्रम में पढ़ते थे। वहाँ उन दोनों में मित्रता हो गयी थी। समय बीतने पर दोनों बड़े हुए और द्रुपद पांचाल देश का राजा बना। एक दिन उसकी राजसभा में द्रोण आते हैं और उसे अपना मित्र कहते हैं। द्रुपद द्रोण को कड़ी फटकार लगाते हैं और कहते हैं मित्रता बराबर वालों में होती है, एक भिखारी और एक राजा में नहीं। इस अपमान से तिलमिलाऐ द्रोण कहते हैं कि अब मैं जिस दिन स्वयं को आपके बराबर कर लूँगा, उस दिन आपसे भेंट करूँगा। यह अपमान द्रोण की छाती में वर्षों तक सुलगता रहा। इसलिये जब पाण्डवों की शिक्षा पूरी हुई तो आचार्य द्रोण ने उनसे गुरु दक्षिणा माँगा कि पांचाल राज्य के राजा द्रुपद को बन्दी बनाकर मुझे सौंप दो। अर्जुन द्रुपद को युद्ध में हरा कर बन्दी बना लाते हैं। द्रोण द्रुपद से कहते हैं कि तुम युद्ध हार गये हो इसलिये तुम्हारे समस्त राज्य पर हम मेरा अधिकार हो गया है। किन्तु मुझे तुम्हारा आधा पांचाल राज्य चाहिये। बाकी आधा पांचाल राज्य तुम्हें लौटा देते हैं। इससे मेरी हैसियत तुम्हारे बराबर की हो जाती है। तो क्या अब मैं तुम्हें अपना मित्र कह सकता हूँ। द्रुपद अपनी पुरानी भूल के लिये क्षमा माँगता है। द्रोण द्रुपद को मित्र कहकर गले लगाते हैं किन्तु द्रुपद के चेहरे पर बदला लेने के भाव झलकते हैं। द्रुपद एक दिन दो ब्रह्मर्षियों याज और उपयाज के आश्रम में पहुँचे और उनसे विनती की कि मुझे सन्तान यज्ञ के द्वारा दो सन्ताने हों। एक पुत्र जो द्रोण का वध कर सके और दूसरी कन्या जिसका विवाह मैं अर्जुन जैसे श्रेष्ठ धनुर्धर से कर सकूँ। ब्रह्मर्षियों के यज्ञ करने से द्रुपद की दोनों इच्छाएं पूरी हुईं। यज्ञ कुण्ड से रथ पर आरूढ़ एक तेजस्वी युवक निकला जिसे पुत्र रूप में स्वीकार द्रुपद ने उसका नाम धृष्टद्युम्न रखा। इसके बाद द्रुपद को यज्ञ कुण्ड की अग्नि से एक दिव्य कन्या की प्राप्ति हुई। उसका नाम द्रौपदी रखा गया। राजकुल की रीति के अनुसार उसने पुत्री द्रौपदी का स्वयंवर रचा। इस स्वयंवर में आर्यावत के अनेक राजा आये। जिनमें शिशुपाल, शल्य, शकुनि, जरासंध, कर्ण और दुर्योधन भी थे। पांचो पाण्डव भी ब्राह्मण वेश में द्रौपदी के स्वयंवर में गये। पांचाल नरेश द्रुपद ने द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण और बलराम को इस स्वयंवर का विशेष निमन्त्रण भेजा। यह प्रथम अवसर है जब इस नर अवतार में श्रीकृष्ण पहली बार अर्जुन के सामने आते हैं। राजकुमार धृष्टद्युम्न स्वयंवर की शर्त बताता है कि एक घूमते चक्र के उपर छत से लटकती हुई एक मछली है। नीचे पांच बाण रखे हैं। इन बाणों से मछली की आँख को भेदना है। किन्तु एक शर्त यह भी है कि बाण का संधान नीचे रखे तेल के कढ़ाव में मछली की परछाई देखकर करना है। सबसे पहले दुर्योधन लक्ष्य भेदने के उठता है। बाण चलाना तो दूर वह वहाँ रखे दिव्य धनुष पर प्रत्यन्चा भी नहीं चढ़ा पाता। बूढ़ा मगध नरेश जरासंध विशालकाय धनुष उठाने में ही हाँफ जाता है और अपमानित होकर वापस लौटता है। इसके बाद कर्ण धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने में सफल होता है किन्तु इसके पहले पर बाण का संधान करता, द्रौपदी अपने स्थान पर खड़े होकर कहती हैं कि क्षत्रिय राजाओं, ब्राह्मणों और सम्राटों से भरी इस सभा में मैं एक सूतपुत्र से विवाह करने से इनकार करती हूँ। दुर्योधन अपने मित्र कर्ण का यूँ अपमान नहीं देख पाता और महाराज द्रुपद को सम्बोधित करते हुए कहता है कि उसका मित्र कर्ण अंगदेश का राजा है इसलिये वह इस स्वयंवर में भाग लेने का अधिकारी है। किन्तु कर्ण अपनी वीरोचित महानता का परिचय देता है और दुर्योधन से कहता है कि विवाह आपसी सहमति से होता है। यदि द्रौपदी मुझसे विवाह नहीं करना चाहती है तो मैं स्वयं को इस स्वयंवर से अलग करता हूँ। श्रीकृष्ण अपने आसन से खड़े होते हैं और कर्ण की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि शास्त्र भी कहता है कि विवाह में नारी की सहमति आवश्यक है। श्रीकृष्ण का समर्थन मिलने द्रौपदी प्रसन्न होती हैं।
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