रामानंद सागर कृत श्री कृष्ण भाग 51 - ऋषि संदीपनि ने दिया श्री कृष्ण बलराम को योग का ज्ञान
भक्त को भगवान से और जिज्ञासु को ज्ञान से जोड़ने वाला एक अनोखा अनुभव। तिलक प्रस्तुत करते हैं दिव्य भूमि भारत के प्रसिद्ध धार्मिक स्थानों के अलौकिक दर्शन। दिव्य स्थलों की तीर्थ यात्रा और संपूर्ण भागवत दर्शन का आनंद।
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Ramanand Sagar's Shree Krishna Episode 51 - Sage Sandipani gave yoga knowledge to Sri Krishna Balarama
गुरु संदीपनि श्रीकृष्ण व बलराम को कुण्डलिनी जागरण की विधि सिखाते हैं। वह बताते हैं कि मनुष्य के शरीर में एक सूक्ष्म शरीर भी होता है जिसके अन्दर शक्ति के सात मुख्य केन्द्र हैं। सबसे पहले मूलाधार चक्र है जो लिंग और गुदा के मध्य स्थित है। इसी चक्र में कुण्डलिनी शक्ति का निवास है। इस शक्ति को जगाना और उसका नियन्त्रण करना योग का परम लक्ष्य है। इसमें पृथ्वी तत्व की प्रधानता है। इसका ध्यान करने से लेखन शक्ति, वाक् शक्ति और आरोग्य आदि की प्राप्ति होती है। दूसरा स्वाधिष्ठान पद्म है जो लिंग के मूल स्थान में स्थित है। इसमें वरुण तत्व की प्रधानता है। इसका ध्यान करने से भक्ति आरोग्य और प्रभुत्व की प्राप्ति होती है। तीसरा मणिपुर पद्म है जो नाभि में स्थित है। इसमें अग्नि तत्व की प्रधानता है। इसका ध्यान करने से आरोग्य, ऐश्वर्य और जगत के पालन और विनाश करने की शक्ति प्राप्त होती है। चौथा पद्म बारह पंखुड़ी वाला अनाहत पद्म है जो हृदय मण्डल में विद्यमान है जिसमें वायु तत्व की प्रधानता है। इसका ध्यान करने से भावनाओं को संचालित और नियन्त्रित करने की शक्ति प्राप्त होती है। पांचवाँ विशुद्धि पद्म है जो कण्ठ में स्थित है। इसमें सोलह पंखुड़िया हैं और इसमें आकाश तत्व की प्रधान है। इसका ध्यान करने से मनुष्य जरा और मृत्यु पाश की पीड़ा से मुक्त हो सकता है। छठा आज्ञा चक्र है जो दोनों भौंहों के बीच स्थित है। इसके त्रिकोण मण्डल में ब्रह्म, विष्णु और शिव का निवास है। इसका ध्यान करने से मनुष्य को अपनी ही जीवात्मा के प्रतिबिम्ब के दर्शन होते हैं और योगी प्रकृति के बंधन से मुक्त हो जाता है। सातवाँ चक्र सहस्त्रार चक्र है जो सिर के शीर्ष पर स्थित है। इस चक्र के बीच स्थित प्रकाश बिन्दु ही ज्ञान के अन्धकार का नाश करने वाला सूर्य स्वरूप परमात्मा है। साधना के बल से इसी प्रकाश के दर्शन करने को ही ब्रह्म साक्षात्कार कहते हैं। महर्षि सन्दीपनि बताते हैं कि योग के द्वारा इन चक्रों को जागृत करने के बाद मनुष्य ऐसी शक्तियों को प्राप्त कर लेता है कि वह एक स्थान पर बैठे हुए बहुत दूर की वस्तुओं को देख सकता है, दूर की आवाज सुन सकता है और दूर बैठे योगी से साक्षात सम्पर्क कर सकता है। कृष्ण अपनी जिज्ञासा व्यक्त करते हैं कि क्या हमारा यह शरीर उड़कर दूसरे स्थान पर जा सकता है। गुरु सन्दीपनि कहते हैं कि पंचभूतों से बना हुआ यह स्थूल शरीर प्रकृति के नियमों में जकड़ा हुआ है किन्तु जिनके अन्दर योग शक्तियों का विकास हो जाता है, वह यह स्थूल शरीर छोड़कर सूक्ष्म शरीर के द्वारा जहाँ चाहें, जा सकते हैं। उस दिन की शिक्षा के बाद गुरुमाता सुदामा और कृष्ण को वन से लकड़ियाँ लाने को भेजती हैं। गुरुमाता कृष्ण और सुदामा को भूख लगने पर खाने के लिये चने देती हैं। कृष्ण अपना पल्लू फटा होने की बात बोलकर सारे चने सुदामा के पल्लू में बंधवा देते हैं। वन में उन्हें शेर की गर्जना सुनायी पड़ती है। वे बचने के लिये पेड़ पर चढ़ जाते हैं। भूख लगने पर सुदामा गुरुमाता के दिए चने अकेले खा जाता है। जब कृष्ण सुदामा से चने माँगते हैं तो वह झूठ बोल देता है कि पेड़ पर चढ़ते वक्त चने नीचे गिर गए थे। कृष्ण सुदामा के इस मासूम झूठ पर मुस्कुराते हैं। वह चमत्कार से अपनी हथेली चनों से भर देते हैं और सुदामा को यह कहते हुए खाने को देते हैं कि पिछल बार के चने अभी तक उनकी अंटी में बँधे हुए थे। सुदामा को पछतावा होता है। वह कृष्ण को सच बताकर क्षमा माँगता है। कृष्ण कहते हैं कि मित्रों के बीच क्षमा जैसी बात नहीं होती है। अगले दिन कृष्ण, बलराम और सुदामा भिक्षा माँगने जाते हैं, पूर्णमासी की पूजा होने के कारण उन्हें गांव में रोटी की जगह मालपुए मिलते हैं। आश्रम के नियम के अनुसार उन्हें भिक्षा में जो कुछ मिलता है, उसे पहले गुरुमाता को देना होता है। सुदामा गर्मागर्म मालपुआ न खा पाने पर दुखी होता है। मार्ग में सुदामा चुपके से एक माल पुआ खा लेता है। कृष्ण उसे पीछे से आकर पकड़ लेते हैं। सुदामा उनसे यह बात गुरुदेव को न बताने का निवेदन करता है। श्रीकृष्ण जानते हैं कि अभावों में जीवन व्यतीत करने के कारण निर्धन सुदामा आश्रम का नियम तोड़ने पर विवश हुआ है। वह उसे अपने हिस्से की भिक्षा दे देते हैं और गुरु माँ को देने के लिए कहते हैं। अगले दिन ऋषि संदीपनि कृष्ण और बलराम को सूक्ष्म शरीर के दूसरे स्थान पर जाने की विद्या सिखाते हैं और फिर सभी तीनों के सूक्ष्म शरीर हिमालय की यात्रा पर निकल पड़ते हैं। गुरुदेव उन्हें बद्रीवन में ले जाते हैं। यहाँ श्रीकृष्ण का अपने मूल स्वरूप भगवान नारायण के चतुर्भुज रूप से साक्षात्कार होता है
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गुरु संदीपनि श्रीकृष्ण व बलराम को कुण्डलिनी जागरण की विधि सिखाते हैं। वह बताते हैं कि मनुष्य के शरीर में एक सूक्ष्म शरीर भी होता है जिसके अन्दर शक्ति के सात मुख्य केन्द्र हैं। सबसे पहले मूलाधार चक्र है जो लिंग और गुदा के मध्य स्थित है। इसी चक्र में कुण्डलिनी शक्ति का निवास है। इस शक्ति को जगाना और उसका नियन्त्रण करना योग का परम लक्ष्य है। इसमें पृथ्वी तत्व की प्रधानता है। इसका ध्यान करने से लेखन शक्ति, वाक् शक्ति और आरोग्य आदि की प्राप्ति होती है। दूसरा स्वाधिष्ठान पद्म है जो लिंग के मूल स्थान में स्थित है। इसमें वरुण तत्व की प्रधानता है। इसका ध्यान करने से भक्ति आरोग्य और प्रभुत्व की प्राप्ति होती है। तीसरा मणिपुर पद्म है जो नाभि में स्थित है। इसमें अग्नि तत्व की प्रधानता है। इसका ध्यान करने से आरोग्य, ऐश्वर्य और जगत के पालन और विनाश करने की शक्ति प्राप्त होती है। चौथा पद्म बारह पंखुड़ी वाला अनाहत पद्म है जो हृदय मण्डल में विद्यमान है जिसमें वायु तत्व की प्रधानता है। इसका ध्यान करने से भावनाओं को संचालित और नियन्त्रित करने की शक्ति प्राप्त होती है। पांचवाँ विशुद्धि पद्म है जो कण्ठ में स्थित है। इसमें सोलह पंखुड़िया हैं और इसमें आकाश तत्व की प्रधान है। इसका ध्यान करने से मनुष्य जरा और मृत्यु पाश की पीड़ा से मुक्त हो सकता है। छठा आज्ञा चक्र है जो दोनों भौंहों के बीच स्थित है। इसके त्रिकोण मण्डल में ब्रह्म, विष्णु और शिव का निवास है। इसका ध्यान करने से मनुष्य को अपनी ही जीवात्मा के प्रतिबिम्ब के दर्शन होते हैं और योगी प्रकृति के बंधन से मुक्त हो जाता है। सातवाँ चक्र सहस्त्रार चक्र है जो सिर के शीर्ष पर स्थित है। इस चक्र के बीच स्थित प्रकाश बिन्दु ही ज्ञान के अन्धकार का नाश करने वाला सूर्य स्वरूप परमात्मा है। साधना के बल से इसी प्रकाश के दर्शन करने को ही ब्रह्म साक्षात्कार कहते हैं। महर्षि सन्दीपनि बताते हैं कि योग के द्वारा इन चक्रों को जागृत करने के बाद मनुष्य ऐसी शक्तियों को प्राप्त कर लेता है कि वह एक स्थान पर बैठे हुए बहुत दूर की वस्तुओं को देख सकता है, दूर की आवाज सुन सकता है और दूर बैठे योगी से साक्षात सम्पर्क कर सकता है। कृष्ण अपनी जिज्ञासा व्यक्त करते हैं कि क्या हमारा यह शरीर उड़कर दूसरे स्थान पर जा सकता है। गुरु सन्दीपनि कहते हैं कि पंचभूतों से बना हुआ यह स्थूल शरीर प्रकृति के नियमों में जकड़ा हुआ है किन्तु जिनके अन्दर योग शक्तियों का विकास हो जाता है, वह यह स्थूल शरीर छोड़कर सूक्ष्म शरीर के द्वारा जहाँ चाहें, जा सकते हैं। उस दिन की शिक्षा के बाद गुरुमाता सुदामा और कृष्ण को वन से लकड़ियाँ लाने को भेजती हैं। गुरुमाता कृष्ण और सुदामा को भूख लगने पर खाने के लिये चने देती हैं। कृष्ण अपना पल्लू फटा होने की बात बोलकर सारे चने सुदामा के पल्लू में बंधवा देते हैं। वन में उन्हें शेर की गर्जना सुनायी पड़ती है। वे बचने के लिये पेड़ पर चढ़ जाते हैं। भूख लगने पर सुदामा गुरुमाता के दिए चने अकेले खा जाता है। जब कृष्ण सुदामा से चने माँगते हैं तो वह झूठ बोल देता है कि पेड़ पर चढ़ते वक्त चने नीचे गिर गए थे। कृष्ण सुदामा के इस मासूम झूठ पर मुस्कुराते हैं। वह चमत्कार से अपनी हथेली चनों से भर देते हैं और सुदामा को यह कहते हुए खाने को देते हैं कि पिछल बार के चने अभी तक उनकी अंटी में बँधे हुए थे। सुदामा को पछतावा होता है। वह कृष्ण को सच बताकर क्षमा माँगता है। कृष्ण कहते हैं कि मित्रों के बीच क्षमा जैसी बात नहीं होती है। अगले दिन कृष्ण, बलराम और सुदामा भिक्षा माँगने जाते हैं, पूर्णमासी की पूजा होने के कारण उन्हें गांव में रोटी की जगह मालपुए मिलते हैं। आश्रम के नियम के अनुसार उन्हें भिक्षा में जो कुछ मिलता है, उसे पहले गुरुमाता को देना होता है। सुदामा गर्मागर्म मालपुआ न खा पाने पर दुखी होता है। मार्ग में सुदामा चुपके से एक माल पुआ खा लेता है। कृष्ण उसे पीछे से आकर पकड़ लेते हैं। सुदामा उनसे यह बात गुरुदेव को न बताने का निवेदन करता है। श्रीकृष्ण जानते हैं कि अभावों में जीवन व्यतीत करने के कारण निर्धन सुदामा आश्रम का नियम तोड़ने पर विवश हुआ है। वह उसे अपने हिस्से की भिक्षा दे देते हैं और गुरु माँ को देने के लिए कहते हैं। अगले दिन ऋषि संदीपनि कृष्ण और बलराम को सूक्ष्म शरीर के दूसरे स्थान पर जाने की विद्या सिखाते हैं और फिर सभी तीनों के सूक्ष्म शरीर हिमालय की यात्रा पर निकल पड़ते हैं। गुरुदेव उन्हें बद्रीवन में ले जाते हैं। यहाँ श्रीकृष्ण का अपने मूल स्वरूप भगवान नारायण के चतुर्भुज रूप से साक्षात्कार होता है
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