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मोहम्मद रफी साहब का आखिरी गाना मौत के पहले रिकॉर्ड किया था यह गाना फिर कह गए अलविदा ?

मोहम्मद रफी साहब का आखिरी गाना मौत के पहले रिकॉर्ड किया था यह गाना फिर कह गए अलविदा ?
मोहम्मद रफ़ी साहब के आखिरी गाने की कहानी
मोहम्मद रफ़ी साहब का नाम सुनते ही एक जादूई आवाज़ ज़हन में गूंजने लगती है — एक ऐसी आवाज़ जो दर्द, मोहब्बत, खुशी और भक्ति को एक साथ महसूस करा देती है। उनका करियर हजारों गानों से सजा हुआ है, लेकिन उनके आखिरी गाने की कहानी एक भावुक पड़ाव है, जो उनकी जिंदगी की अंतिम सुर की तरह सामने आती है।
गाना: "शाम फिर क्यों उदास है दोस्त"
फिल्म: आस-पास उन्नीस सो एकयसी
म्यूज़िक डायरेक्टर: लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल
गीतकार: आनंद बख्शी
गायक: मोहम्मद रफ़ी
रिकॉर्डिंग डेट: इकतीस जुलाई, उन्नीस सो अस्सी
रफ़ी साहब की मौत: इकतीस जुलाई, उन्नीस सो अस्सी (शाम दस बज कर पच्चीस बजे, दिल का दौरा)
कहानी की शुरुआत: एक सामान्य दिन
इकतीस जुलाई उन्नीस सो अस्सी की सुबह थी। रफ़ी साहब हमेशा की तरह समय के पाबंद थे। वो मुंबई के मशहूर Mehboob Studios में पहुंचे, जहां फिल्म आस-पास के एक दर्दभरे गाने की रिकॉर्डिंग होनी थी। गाने की लाइनें थीं —
"शाम फिर क्यों उदास है दोस्त..."
ये गाना खुद अपने आप में एक पूर्वाभास जैसा था।
रिकॉर्डिंग के समय रफ़ी साहब की तबियत थोड़ी नासाज़ थी, लेकिन उन्होंने किसी को कुछ नहीं बताया। उनका स्वभाव ही ऐसा था — काम पहले, आराम बाद में। लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के निर्देशन में उन्होंने इस गाने को अपनी पूरी आत्मा से गाया।
रिकॉर्डिंग रूम की ख़ामोशी
गाना रिकॉर्ड होते ही स्टूडियो में एक पल को सन्नाटा छा गया। हर कोई उस गाने की भावनात्मक गहराई से प्रभावित था। लक्ष्मीकांत ने कहा था,
"रफ़ी साहब की आवाज़ में ऐसा लगता है मानो वो अलविदा कह रहे हैं।"
किसी को क्या पता था कि ये वाकई उनका आखिरी अल्फ़ाज़ होगा।
रात को आई दुखद ख़बर
शाम को रफ़ी साहब घर लौटे और हल्का-सा सीने में दर्द महसूस किया। परिवार ने तुरंत डॉक्टर को बुलाया लेकिन कुछ ही घंटों में, रात दस पच्चीस पर उन्होंने अंतिम सांस ली। संगीत की दुनिया एक महान सितारा खो चुकी थी।
गाने की रूहानियत
जब फिल्म आस-पास रिलीज़ हुई और लोगों ने ये गाना सुना —
"शाम फिर क्यों उदास है दोस्त..."
तो हर किसी की आंखें नम हो गईं। ऐसा लगा जैसे रफ़ी साहब अपनी ही मौत का गीत गा गए हों।
आखिरी गाने की अहमियत
ये गाना अब सिर्फ एक फिल्मी गीत नहीं है। ये मोहम्मद रफ़ी साहब की विरासत का आखिरी अध्याय बन चुका है। एक ऐसा गीत जो उनकी सादगी, उनके समर्पण और उनके फन की अंतिम निशानी है।
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