Visit Harsil | बगोरी गांव की खूबसूरती | प्राचीन व्यापारियों का गांव
लोकसंस्कृति,इतिहास और परम्पराएं कई गांवों की पहचान रही है।बगोरी गांव की जाड़ जनजाति की अनोखी विरासत इसका प्रमाण है।इनके परिधान,बोली,खान पान और मेले त्यौहार इस गांव को यूनीक बनाते है।हर्सिल से मात्र 1 किमी की दूरी पर बगोरी स्थित है।आप पैदल या अपनी गाड़ी से यहां पहुच सकते है।सालों पहले निलंग जादुंग गांव से जब पलायन हुआ तो बगोरी की जाड जनजाति ने वो दर्द झेला।जब इंडो चाईना वार के बाद इन्हें हटाया गया।ये देश की सीमाओं के द्वितीय पंक्ति के प्रहरी है जो कई मुश्किलें सदियों से सहते रहे है।इस कहानी से आप पूरी समझ जाएंगे..
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#harsil
बगोरी गांव में करीब 250 परिवार रहते है।सर्दियों के समय में गांव के लोग डुंडा चले जाते है।गांव एक रेखा में बसा है।दोनों तरफ लकड़ी के नक्काशीदार भवन बने है शायद बर्फीली हवाओं से बचने के लिए गांव की बसासत ऐसी की गई होगी। उनके पीछे सेब के बगीेचें ....।ग्रामीण महिलाएं आपका स्वागत करती है जो ऊन के कई उत्पाद बनाती दिख जाती है।हिन्दी,गढवाली और जाड़ भाषा यहां के लोग बोलते है।1962 में भारत चीन युद्व से पहले निलंग और जादुंग उनके पैतृक गांव थे।भारत तिब्बत व्यापार में निलंग और जादुंग गांव की सबसे बडी भूमिका रहती थी। प्राचीन समय में यहाँ के निवासी व्यापार करते थे।बगोरी गाँव के धनीराम सेठ ने अफगानिस्तान से मजदूरों को बुलाकर 800 रू से गरतांग गली का निर्माण कराया।इसमें स्थानीय लोगों ने देवदार की लकड़ियों से मदद की।उस समय इस घाटी के लोग तिब्बत से सोना, पसमीना, घी, नमक के लिए तिब्बत जाते थे। जबकि भारत से गुड़, अनाज, बर्तन सहित कई सामान ले जाते थे।गांव के लोग हर साल 2 दून को जादुंग गांव में पूजा के लिए जाते है।लाल देवता, माता रिंगाली देवी और चैन देवता की पूजा की पूजा की जाती है।
तिब्बत का पुराना ट्रैड रुट बगोरी,गरतांत गली,निलंग और जादुंग से होते हुए थोलिंग मठ तक जाता है।गढवाल के 52 गढों में गरतांग गढ का जिक्र है।यह ऐतिहासिक ट्रैक रुट 1962 युद्व से पहले काफी लोकप्रिय हुआ करता था।निलंग और जादुंग गांवों से पहले तीन राज्य कर वसूलते थे।आजादी से पहले ये दोनों गांव के व्यापारी रामपुर बुशहर को 60 रु Visit Harsil | बगोरी गांव की खूबसूरती | प्राचीन व्यापारियों का गांव
तिब्तत को 100 रु और टिहरी राज्य को 84 रु कर दिया करते थे।हम उस ट्रैक रुट पर गांव से आगे निकले।शांत भागीरथी मंद मंद बह रही है।बर्फीली हवाएं और गुगगुनी धूप में हम आगे बढते है।यही ट्रैक गंगोत्री और तिब्बत का पुराना ट्रैक रुट है।कहीं कही देवदार के विशाल पेड है जिन्हें अगर नापा जाए तो 10 लोगों को हाथ फैलाना पडेगा।इन रास्तों पर चलना वाकई एक सुखद अनुभव है।
वीओ-बगोरी गांव में सर्दियों के सयम तो सन्नाटा पसरा है।घरों पर ताले लटके है लेकिन कुछ परिवार अभी भी गांव में रह रहे है।इस गांव में एक दर्जन से अधिक होमस्टे खुल चुके है।आप इन लकड़ी के बने घरों में रुककर देश की अनोखी लोकसंस्कृति का आनंद ले सकते है।हमारा भी भागीरथी होम स्टे में जाना हुआ तो उन्होंने चौरा जड़ीबूटी की चाय पिलाई जो पेट के लिए काफी फायदेमंद होती है।उस समय बर्फीली हवाओं में हमें गर्मी का अहसास हो गया। उनके पास फर्न भी था जिसे कई व्यंजनों में डालने से स्वाद बढ़ जाता है।उत्तराखंड के सीमांत घाटियों के लोग खेती की तरह ऊन बुनने का करोबार करते है।। जनजातियों के बुनकरों ने इस कारोबार को आज भी संभाल कर रखा है।हालांकि अब यह कम हो गया है लेकिन बगोरी की उर्मिला देवी जैसी सैकडों महिलाएं आज भी स्थानीय भेड बकरियों की ऊन से उत्पाद बनाती दिख जाती है।
बगोरी गाँव में आपस में शादी भी होती है।गांव में हिन्दू देवताओं के मंदिर है।साथ ही बौद्व धर्म की मोनेस्टी भी है।यहां के लोग दोनों धर्मों को मानते है।गाँव में जून जुलाई में शेरगिन जो बौद्ध धर्म का प्रसिद्ध पर्व है जबकि फरवरी में लोसर पर्व बड़े ही धूम धाम के साथ मनाया जाता है।जाड़ समुदाय के पहले कई गाँव हुआ करते थे। बगोरी से आगे कारछा, हनौलीगाड़, कोपाँग, दुमको, सोनम, नागा, निलोंग और जादूँग गाँव है जो अब इतिहास के पन्नों में खो चुके है।हालांकि केन्द्र सरकार दोबारा निलंग और जादुंग को बसाने की तैयारी कर रही है।लेकिन ग्रामीणों की कई दिक्कतें भी है।अपने पैतृक गांव जाने के लिए भी उन्हें सरकार ने अनुमति लेनी पडती है।
बगोरी गांव उत्तरकाशी से 77 किमी की दूरी पर बसा है।समुद्र तल से इसकी ऊंचाई 2730 मीटर है।यहां से गंगोत्री धाम की दूरी 29 किमी रह जाती है।बगोरी से आप मुखबा,लामा टाप, सात ताल,क्यारकोटी और निलंग भी जा सकते है।गांव में सेब,आलू,राजमा के जाना जाता है।शांत आबोहवा और जाड जनजाति की लोकसंस्कृति को अलग पहचान देती है। बगोरी की वादियों से निलकने का समय आ चुका है।आंखों में गांव के नजारें बस चुके थे। गर्मियों के आगमन के साथ ही गांव में चहल पहल शुरु हो जाएगी।गलियों में बच्चों का शोर...पर्यटकों की चहलकदमी और सेब के बगीचों में फूलों से पूरी घाटी अपने नए रुप में होगी....फिर एक बार इस गांव की यात्रा होगी...कुछ और समझने की कुछ नया देखने की.....देश की सांस्कतिक विरासत को समझने के लिए..
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बगोरी गांव में करीब 250 परिवार रहते है।सर्दियों के समय में गांव के लोग डुंडा चले जाते है।गांव एक रेखा में बसा है।दोनों तरफ लकड़ी के नक्काशीदार भवन बने है शायद बर्फीली हवाओं से बचने के लिए गांव की बसासत ऐसी की गई होगी। उनके पीछे सेब के बगीेचें ....।ग्रामीण महिलाएं आपका स्वागत करती है जो ऊन के कई उत्पाद बनाती दिख जाती है।हिन्दी,गढवाली और जाड़ भाषा यहां के लोग बोलते है।1962 में भारत चीन युद्व से पहले निलंग और जादुंग उनके पैतृक गांव थे।भारत तिब्बत व्यापार में निलंग और जादुंग गांव की सबसे बडी भूमिका रहती थी। प्राचीन समय में यहाँ के निवासी व्यापार करते थे।बगोरी गाँव के धनीराम सेठ ने अफगानिस्तान से मजदूरों को बुलाकर 800 रू से गरतांग गली का निर्माण कराया।इसमें स्थानीय लोगों ने देवदार की लकड़ियों से मदद की।उस समय इस घाटी के लोग तिब्बत से सोना, पसमीना, घी, नमक के लिए तिब्बत जाते थे। जबकि भारत से गुड़, अनाज, बर्तन सहित कई सामान ले जाते थे।गांव के लोग हर साल 2 दून को जादुंग गांव में पूजा के लिए जाते है।लाल देवता, माता रिंगाली देवी और चैन देवता की पूजा की पूजा की जाती है।
तिब्बत का पुराना ट्रैड रुट बगोरी,गरतांत गली,निलंग और जादुंग से होते हुए थोलिंग मठ तक जाता है।गढवाल के 52 गढों में गरतांग गढ का जिक्र है।यह ऐतिहासिक ट्रैक रुट 1962 युद्व से पहले काफी लोकप्रिय हुआ करता था।निलंग और जादुंग गांवों से पहले तीन राज्य कर वसूलते थे।आजादी से पहले ये दोनों गांव के व्यापारी रामपुर बुशहर को 60 रु Visit Harsil | बगोरी गांव की खूबसूरती | प्राचीन व्यापारियों का गांव
तिब्तत को 100 रु और टिहरी राज्य को 84 रु कर दिया करते थे।हम उस ट्रैक रुट पर गांव से आगे निकले।शांत भागीरथी मंद मंद बह रही है।बर्फीली हवाएं और गुगगुनी धूप में हम आगे बढते है।यही ट्रैक गंगोत्री और तिब्बत का पुराना ट्रैक रुट है।कहीं कही देवदार के विशाल पेड है जिन्हें अगर नापा जाए तो 10 लोगों को हाथ फैलाना पडेगा।इन रास्तों पर चलना वाकई एक सुखद अनुभव है।
वीओ-बगोरी गांव में सर्दियों के सयम तो सन्नाटा पसरा है।घरों पर ताले लटके है लेकिन कुछ परिवार अभी भी गांव में रह रहे है।इस गांव में एक दर्जन से अधिक होमस्टे खुल चुके है।आप इन लकड़ी के बने घरों में रुककर देश की अनोखी लोकसंस्कृति का आनंद ले सकते है।हमारा भी भागीरथी होम स्टे में जाना हुआ तो उन्होंने चौरा जड़ीबूटी की चाय पिलाई जो पेट के लिए काफी फायदेमंद होती है।उस समय बर्फीली हवाओं में हमें गर्मी का अहसास हो गया। उनके पास फर्न भी था जिसे कई व्यंजनों में डालने से स्वाद बढ़ जाता है।उत्तराखंड के सीमांत घाटियों के लोग खेती की तरह ऊन बुनने का करोबार करते है।। जनजातियों के बुनकरों ने इस कारोबार को आज भी संभाल कर रखा है।हालांकि अब यह कम हो गया है लेकिन बगोरी की उर्मिला देवी जैसी सैकडों महिलाएं आज भी स्थानीय भेड बकरियों की ऊन से उत्पाद बनाती दिख जाती है।
बगोरी गाँव में आपस में शादी भी होती है।गांव में हिन्दू देवताओं के मंदिर है।साथ ही बौद्व धर्म की मोनेस्टी भी है।यहां के लोग दोनों धर्मों को मानते है।गाँव में जून जुलाई में शेरगिन जो बौद्ध धर्म का प्रसिद्ध पर्व है जबकि फरवरी में लोसर पर्व बड़े ही धूम धाम के साथ मनाया जाता है।जाड़ समुदाय के पहले कई गाँव हुआ करते थे। बगोरी से आगे कारछा, हनौलीगाड़, कोपाँग, दुमको, सोनम, नागा, निलोंग और जादूँग गाँव है जो अब इतिहास के पन्नों में खो चुके है।हालांकि केन्द्र सरकार दोबारा निलंग और जादुंग को बसाने की तैयारी कर रही है।लेकिन ग्रामीणों की कई दिक्कतें भी है।अपने पैतृक गांव जाने के लिए भी उन्हें सरकार ने अनुमति लेनी पडती है।
बगोरी गांव उत्तरकाशी से 77 किमी की दूरी पर बसा है।समुद्र तल से इसकी ऊंचाई 2730 मीटर है।यहां से गंगोत्री धाम की दूरी 29 किमी रह जाती है।बगोरी से आप मुखबा,लामा टाप, सात ताल,क्यारकोटी और निलंग भी जा सकते है।गांव में सेब,आलू,राजमा के जाना जाता है।शांत आबोहवा और जाड जनजाति की लोकसंस्कृति को अलग पहचान देती है। बगोरी की वादियों से निलकने का समय आ चुका है।आंखों में गांव के नजारें बस चुके थे। गर्मियों के आगमन के साथ ही गांव में चहल पहल शुरु हो जाएगी।गलियों में बच्चों का शोर...पर्यटकों की चहलकदमी और सेब के बगीचों में फूलों से पूरी घाटी अपने नए रुप में होगी....फिर एक बार इस गांव की यात्रा होगी...कुछ और समझने की कुछ नया देखने की.....देश की सांस्कतिक विरासत को समझने के लिए..
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