रामानंद सागर कृत श्री कृष्ण भाग 95 - नरकासुर वध | सत्यभामा ने की कृष्ण से पारिजात वृक्ष की माँग
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Ramanand Sagar's Shree Krishna Episode 95 - Narakasura Vadh. Satyabhama Ne Ki Krishna Se Parijat Vruksh Ki Maang.
नरकासुर का आतंक तीनों लोकों में फैलता है। उसका दुस्साहस इतना बढ़ता है कि एक दिन वह देवलोक में घुसकर देवमाता अदिति के कान से उनके कुण्डल नोच ले जाता है और खुली चुनौती दे जाता है कि यदि देवताओं की भुजाओं में शक्ति है तो मुझे परास्त कर अपनी माँ के कुण्डल वापस ले जाएं। इन्द्र द्वारिकापुरी जाकर श्रीकृष्ण से सहायता माँगते हैं। श्रीकृष्ण नरकासुर को मारने के लिये अपने वाहन गरुड़ पर जाते हैं। रानी सत्यभामा उनकी सारथी बनती हैं। नरकासुर की नगरी प्रागज्योतिषपुर के ऊपर पहुँच कर श्रीकृष्ण पान्चजन्य शंख का नाद करते हैं। नरकासुर उनसे युद्ध करने आता है। श्रीकृष्ण उससे कहते हैं कि भगवान ब्रह्मा के वरदान का गलत उपयोग करके तुमने अधर्म किया है। तुमने अनेक राजाओं और सोलह हजार राजकुमारियों को बलपूर्वक बन्दी बनाया हुआ है। यह भी अधर्म है। इसके बाद दोनों के बीच भीषण संग्राम होता है। नरकासुर एक गदा प्रहार को सत्यभामा अपनी हथेली से ढ़ाल बनाकर रोक देती हैं। श्रीकृष्ण इसके बाद नरकासुर को अगला अवसर न देते हुए सुदर्शन चक्र से उसके शरीर के दो टुकड़े कर देते हैं। चूँकि नरकासुर भूदेवी का पुत्र था, इसलिये धरती फटती है और नरकासुर का शरीर उसमें समा जाता है। धरती के गर्भ से भूदेवी बाहर आती हैं और श्रीकृष्ण को प्रणाम करती हैं। भूदेवी कहती हैं कि आपने वराह अवतार के समय यह पुत्र मुझे प्रदान किया था। यह अच्छा हुआ कि इसकी मुक्ति आपके हाथों से ही हुई। वह श्रीकृष्ण को देवमाता के कुण्डल वापस सौंपती हैं। इसके बाद सत्यभामा और श्रीकृष्ण कुण्डल वापस करने स्वर्गलोक जाते हैं। इन्द्रलोक में फैली एक विशेष सुगन्ध से सत्यभामा रोमांचित होती हैं। इन्द्र उन्हें बताते हैं कि यह सुगन्ध पारिजात वृक्ष की है। इन्द्र की पत्नी शचि उन्हें बताती है कि इसी पारिजात ने देवलोक में रहने वालों को चिरयौवन की शक्ति प्रदान की है। देवताओं को पारिजात वृक्ष समुद्र मंथन से प्राप्त हुआ था। सत्यभामा कहती हैं कि यदि यह सत्य है तो आप देवतागण इसका अकेले लाभ क्यों उठा रहे हैं। इन्द्र उत्तर देते हैं कि यह देवताओं की सम्पत्ति है इसलिये यह देवलोक में रहेगा। एक बार भगवान शंकर ने भी इसकी माँग की थी किन्तु हम देवताओं ने हाथ जोड़कर उनसे भी क्षमा माँग ली थी। इसके बाद सत्यभामा देवमाता अदिति को उनके कुण्डल वापस सौंपती हैं। देवमाता सत्यभामा को आशीर्वाद देती हैं कि तुम देवलोक की देवांगनाओं की तरह अक्षय यौवन की स्वामिनी बनोगी। जब तक तुम मृत्युलोक में रहोगी, बुढ़ापा तुम्हें स्पर्श भी नहीं करेगा। इसके बाद श्रीकृष्ण और सत्यभामा देवलोक से विदा लेकर वापस धरती पर द्वारिकापुरी में आते हैं। श्रीकृष्ण देवलोक से अपने साथ पारिजात पुष्प लेकर आये हैं, जिसे वह रानी रुक्मिणी को भेंट करते हैं और कहते हैं कि इस पुष्प से आपको चिरयौवन की प्राप्ति होगी। प्रभु की लीला है कि जब उन्हें अपने किसी प्रियजन के अहंकार का नाश करना होता है तो वे पहले उसकी चित्तवृत्ति को पराकाष्ठा तक पहुँचाते हैं। प्रभु की इसी लीला का पात्र बनकर नारद मुनि सत्यभामा के पास पहुँचते हैं और उनकी प्रसन्नता का कारण पूछते हैं। सत्यभामा उन्हें बताती हैं कि देवमाता ने उन्हें चिरयौवना होने का आशीर्वाद दिया है। नारद जी इधर की उधर लगाने वाले अन्दाज में कहते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण कभी असमानता का व्यवहार नहीं करते हैं। उन्होंने आपको देवलोक ले जाकर चिरयौवना का आशीर्वाद दिला दिया और देवराज इन्द्र से मिला पारिजात पुष्प देवी रुक्मिणी को भेंट कर दिया। पारिजात पुष्प की सबसे बड़ी विशेषता है कि यह जिसके पास रहता है, उसे संसार के हर वैभव, सुख, सन्तान, मान, यश और प्रतिष्ठा की प्राप्ति होती है। पारिजात पुष्प रखने वाला चिरयौवन तो अपने आप ही हो जाता है। इस तरह प्रभु ने अपनी दोनों रानियों को चिरयौवना बना दिया है। सत्यभामा के अहंकार को ठेस पहुचती है। अब तक वह सोचती थी कि श्रीकृष्ण सबसे अधिक उसे चाहते हैं किन्तु आज उसका मन भीतर से बोला कि शायद वह अब रुक्मिणी को उससे अधिक चाहते हैं। सत्यभामा ठानती है कि अब उसे सबके सामने सिद्ध करना है कि श्रीकृष्ण उसे सर्वाधिक प्रेम करते हैं। इसके लिये वह उनसे पारिजात का पूरा वृक्ष ही धरती पर लाने के लिये कहेंगी। इसके बाद सत्यभामा अपने समस्त श्रंगार का त्याग करती हैं और रुष्ट होने के प्रदर्शन करती हैं। श्रीकृष्ण उनसे इसका कारण पूछते हैं। तब सत्यभामा उनसे देवलोक से पारिजात का वृक्ष लाकर देने की माँग करती हैं। श्रीकृष्ण उन्हें मनाने का प्रयास करते हैं किन्तु सत्यभामा अपनी माँग पर अड़ी रहती हैं।
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नरकासुर का आतंक तीनों लोकों में फैलता है। उसका दुस्साहस इतना बढ़ता है कि एक दिन वह देवलोक में घुसकर देवमाता अदिति के कान से उनके कुण्डल नोच ले जाता है और खुली चुनौती दे जाता है कि यदि देवताओं की भुजाओं में शक्ति है तो मुझे परास्त कर अपनी माँ के कुण्डल वापस ले जाएं। इन्द्र द्वारिकापुरी जाकर श्रीकृष्ण से सहायता माँगते हैं। श्रीकृष्ण नरकासुर को मारने के लिये अपने वाहन गरुड़ पर जाते हैं। रानी सत्यभामा उनकी सारथी बनती हैं। नरकासुर की नगरी प्रागज्योतिषपुर के ऊपर पहुँच कर श्रीकृष्ण पान्चजन्य शंख का नाद करते हैं। नरकासुर उनसे युद्ध करने आता है। श्रीकृष्ण उससे कहते हैं कि भगवान ब्रह्मा के वरदान का गलत उपयोग करके तुमने अधर्म किया है। तुमने अनेक राजाओं और सोलह हजार राजकुमारियों को बलपूर्वक बन्दी बनाया हुआ है। यह भी अधर्म है। इसके बाद दोनों के बीच भीषण संग्राम होता है। नरकासुर एक गदा प्रहार को सत्यभामा अपनी हथेली से ढ़ाल बनाकर रोक देती हैं। श्रीकृष्ण इसके बाद नरकासुर को अगला अवसर न देते हुए सुदर्शन चक्र से उसके शरीर के दो टुकड़े कर देते हैं। चूँकि नरकासुर भूदेवी का पुत्र था, इसलिये धरती फटती है और नरकासुर का शरीर उसमें समा जाता है। धरती के गर्भ से भूदेवी बाहर आती हैं और श्रीकृष्ण को प्रणाम करती हैं। भूदेवी कहती हैं कि आपने वराह अवतार के समय यह पुत्र मुझे प्रदान किया था। यह अच्छा हुआ कि इसकी मुक्ति आपके हाथों से ही हुई। वह श्रीकृष्ण को देवमाता के कुण्डल वापस सौंपती हैं। इसके बाद सत्यभामा और श्रीकृष्ण कुण्डल वापस करने स्वर्गलोक जाते हैं। इन्द्रलोक में फैली एक विशेष सुगन्ध से सत्यभामा रोमांचित होती हैं। इन्द्र उन्हें बताते हैं कि यह सुगन्ध पारिजात वृक्ष की है। इन्द्र की पत्नी शचि उन्हें बताती है कि इसी पारिजात ने देवलोक में रहने वालों को चिरयौवन की शक्ति प्रदान की है। देवताओं को पारिजात वृक्ष समुद्र मंथन से प्राप्त हुआ था। सत्यभामा कहती हैं कि यदि यह सत्य है तो आप देवतागण इसका अकेले लाभ क्यों उठा रहे हैं। इन्द्र उत्तर देते हैं कि यह देवताओं की सम्पत्ति है इसलिये यह देवलोक में रहेगा। एक बार भगवान शंकर ने भी इसकी माँग की थी किन्तु हम देवताओं ने हाथ जोड़कर उनसे भी क्षमा माँग ली थी। इसके बाद सत्यभामा देवमाता अदिति को उनके कुण्डल वापस सौंपती हैं। देवमाता सत्यभामा को आशीर्वाद देती हैं कि तुम देवलोक की देवांगनाओं की तरह अक्षय यौवन की स्वामिनी बनोगी। जब तक तुम मृत्युलोक में रहोगी, बुढ़ापा तुम्हें स्पर्श भी नहीं करेगा। इसके बाद श्रीकृष्ण और सत्यभामा देवलोक से विदा लेकर वापस धरती पर द्वारिकापुरी में आते हैं। श्रीकृष्ण देवलोक से अपने साथ पारिजात पुष्प लेकर आये हैं, जिसे वह रानी रुक्मिणी को भेंट करते हैं और कहते हैं कि इस पुष्प से आपको चिरयौवन की प्राप्ति होगी। प्रभु की लीला है कि जब उन्हें अपने किसी प्रियजन के अहंकार का नाश करना होता है तो वे पहले उसकी चित्तवृत्ति को पराकाष्ठा तक पहुँचाते हैं। प्रभु की इसी लीला का पात्र बनकर नारद मुनि सत्यभामा के पास पहुँचते हैं और उनकी प्रसन्नता का कारण पूछते हैं। सत्यभामा उन्हें बताती हैं कि देवमाता ने उन्हें चिरयौवना होने का आशीर्वाद दिया है। नारद जी इधर की उधर लगाने वाले अन्दाज में कहते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण कभी असमानता का व्यवहार नहीं करते हैं। उन्होंने आपको देवलोक ले जाकर चिरयौवना का आशीर्वाद दिला दिया और देवराज इन्द्र से मिला पारिजात पुष्प देवी रुक्मिणी को भेंट कर दिया। पारिजात पुष्प की सबसे बड़ी विशेषता है कि यह जिसके पास रहता है, उसे संसार के हर वैभव, सुख, सन्तान, मान, यश और प्रतिष्ठा की प्राप्ति होती है। पारिजात पुष्प रखने वाला चिरयौवन तो अपने आप ही हो जाता है। इस तरह प्रभु ने अपनी दोनों रानियों को चिरयौवना बना दिया है। सत्यभामा के अहंकार को ठेस पहुचती है। अब तक वह सोचती थी कि श्रीकृष्ण सबसे अधिक उसे चाहते हैं किन्तु आज उसका मन भीतर से बोला कि शायद वह अब रुक्मिणी को उससे अधिक चाहते हैं। सत्यभामा ठानती है कि अब उसे सबके सामने सिद्ध करना है कि श्रीकृष्ण उसे सर्वाधिक प्रेम करते हैं। इसके लिये वह उनसे पारिजात का पूरा वृक्ष ही धरती पर लाने के लिये कहेंगी। इसके बाद सत्यभामा अपने समस्त श्रंगार का त्याग करती हैं और रुष्ट होने के प्रदर्शन करती हैं। श्रीकृष्ण उनसे इसका कारण पूछते हैं। तब सत्यभामा उनसे देवलोक से पारिजात का वृक्ष लाकर देने की माँग करती हैं। श्रीकृष्ण उन्हें मनाने का प्रयास करते हैं किन्तु सत्यभामा अपनी माँग पर अड़ी रहती हैं।
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2 января 2021 г. 6:30:01
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