आदर्श विवाह संस्कार ! यश संग माधवी ! Adarsh Vivah ! Ideal Marriage @ Gayatri Pariwar sendhwa
विवाह का स्वरूप
आज विवाह वासना-प्रधान बनते चले जा रहे हैं। रंग, रूप एवं वैष-विन्यास के आकर्षण को पति-पत्नि के चुनाव में प्रधानता दी जाने लगी है, यह प्रवृत्ति बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है । यदि लोग इसी तरह सोचते रहे, तो दाम्पत्य जीवन शरीर प्रधान रहने से एक प्रकार के वैध व्यभिचार का ही रूप धारण कर लेगा। पाश्चात्य जैसी स्थिति भारत में भी आ जायेगी। शारीरिक आकर्षण की न्यूनाधिकता का अवसर सामने आने पर विवाह जल्दी-जल्दी टूटते-बनते रहेंगे। अभी पत्नि का चुनाव शारीरिक, आकर्षण का ध्यान में रखकर किये जाने की प्रथा चली है, थोड़े ही दिनों में इसकी प्रतिक्रिया पति के चुनाव में भी सामने आयेगी तब असुन्दर पतियों को कोई पतनी पसन्द न करेगी और उन्हें दाम्पत्य सुख से वंचित ही रहना पड़ेगा।
समय रहते इस बढ़ती हुई प्रवृत्ति को रोका जाना चाहिए और शारीरिक आकर्षण की उपेक्षा कर सद्गुणों तथा सद्भावनाओं को ही विवाह का आधार पूर्वकॉल की तरह बने रहने देना चाहिए। शरीर का नहीं आत्मा का सौन्दयर देखा जाए और साथी में जो कमी है, उसे प्रेम, सहिष्णुता, आत्मीयता एवं विश्वास की छाया में जितना सम्भव हो सफे, सुधारना चाहिए, जो सुधार न हो सके, उसे बिना असन्तोष जाये सहन करना चाहिए। इस रीति-नीति पर दाम्पत्य जीवन की सफलता निर्भर है। अतएच पति पतनी को एक-दूसरे से आकषर्ण लाभ मिलने की बात न सोचकर एक-दूसरे के प्रति आत्म-समपर्ण करने और सम्मिलित शक्ति उत्पन्न करने, उसके जीवन विकास की सम्भावनाएँ उत्पन्न करने की बात सोचनी चाहिए। चुनाव करते समय तक साथी को पसन्द करने न करने की छूट है। जो कुछ देखना, ढूँढ़ना, परखना हो, वह कार्य विवाह से पूर्व ही समाप्त कर लेना चाहिए। जब विवाह हो गया, तो फिर यह कहने की गुजाइश नहीं रहती कि भूल हो गई, इसलिए साथी की उपेक्षा की जाए। जिस प्रकार के भी गुण-दोष युक्त साथी के साथ विवाह बन्धन में बंधे उसे अपनी और से कर्तव्यपालन समझकर पूरा करना ही एक मात्र मार्ग रह जाता है। इसी के लिए विवाह संस्कार का आयोजन किया जाता है। समाज के सम्भ्रान्त व्यक्तियों की, गुरुजनों की, कुटुम्बी सम्बन्धियों की, देवताओं की उपस्थिति इसीलिए इस धर्मानुष्ठान के अवसर पर आवश्यक मानी जाती है कि दोनों में से कोई इस कत्तर्य-बन्धन की उपेक्षा करे, तो उसे रोके और प्रताहित करें।
पति-पतनी इन सन्त्रान्त व्यक्तियों के सम्मुख अपने निश्चय की प्रतिज्ञा-बन्धन की घोषणा करते हैं। यह प्रतिज्ञा समारोह ही विवाह संस्कार है। इस अवसर पर दोनों की ही यह भावनाएँ गहराई तक अपने मन में जमानी चाहिए कि ये पृथक व्यक्तियों की सत्ता समाप्त कर एकीकरण की आत्मीयता में विकसित होते हैं। कोई किसी पर न तो हुकुमत जमायेगा और न अपने अधीन बशवतीं रखकर अपने लाभ या अहंकार की पूर्ति करना चाहेगा। वन वह करेगा, जिससे साथी को सुविधा मिलती हो । दोनों अपनी इच्छा आवश्कता को गौण और साथी की आवश्यकता को मुख्य मानकर सेवा और सहायता का भाव रखेंगे, उदारता एवं सहिष्णुता बरतेंगे, तभी गृहस्थी का ठीक तरह आगे बढ़ेगा। इस तथ्य को दोनों भली प्रकार हृदयंगम कर लें और इसी रीति-नीति को आजीवन अपनाये रहने का व्रत धारण करें, इसी प्रयोजन पेशs Not यह पुण्यसंस्कार आयोजित किया जाता है। इस बात को दोनों भली प्रकार समझ में और सच्चे मन से स्वीकार कर लें तो ही विवाह बन्धन में बंधे विवाह संस्कार आरम्भ करने से पूर्व या विवाह वेदी पर बिठाकर दोनों को यह तथ्य भली प्रकार समझा दिया जाए और उनकी सहमति मांगी जाए। यदि दोनों इन आदर्शों को अपनाये रहने की हार्दिक सहमति स्वीकृति दे तो ही विवाह संस्कार आगे बढ़ाया जाए।
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आज विवाह वासना-प्रधान बनते चले जा रहे हैं। रंग, रूप एवं वैष-विन्यास के आकर्षण को पति-पत्नि के चुनाव में प्रधानता दी जाने लगी है, यह प्रवृत्ति बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है । यदि लोग इसी तरह सोचते रहे, तो दाम्पत्य जीवन शरीर प्रधान रहने से एक प्रकार के वैध व्यभिचार का ही रूप धारण कर लेगा। पाश्चात्य जैसी स्थिति भारत में भी आ जायेगी। शारीरिक आकर्षण की न्यूनाधिकता का अवसर सामने आने पर विवाह जल्दी-जल्दी टूटते-बनते रहेंगे। अभी पत्नि का चुनाव शारीरिक, आकर्षण का ध्यान में रखकर किये जाने की प्रथा चली है, थोड़े ही दिनों में इसकी प्रतिक्रिया पति के चुनाव में भी सामने आयेगी तब असुन्दर पतियों को कोई पतनी पसन्द न करेगी और उन्हें दाम्पत्य सुख से वंचित ही रहना पड़ेगा।
समय रहते इस बढ़ती हुई प्रवृत्ति को रोका जाना चाहिए और शारीरिक आकर्षण की उपेक्षा कर सद्गुणों तथा सद्भावनाओं को ही विवाह का आधार पूर्वकॉल की तरह बने रहने देना चाहिए। शरीर का नहीं आत्मा का सौन्दयर देखा जाए और साथी में जो कमी है, उसे प्रेम, सहिष्णुता, आत्मीयता एवं विश्वास की छाया में जितना सम्भव हो सफे, सुधारना चाहिए, जो सुधार न हो सके, उसे बिना असन्तोष जाये सहन करना चाहिए। इस रीति-नीति पर दाम्पत्य जीवन की सफलता निर्भर है। अतएच पति पतनी को एक-दूसरे से आकषर्ण लाभ मिलने की बात न सोचकर एक-दूसरे के प्रति आत्म-समपर्ण करने और सम्मिलित शक्ति उत्पन्न करने, उसके जीवन विकास की सम्भावनाएँ उत्पन्न करने की बात सोचनी चाहिए। चुनाव करते समय तक साथी को पसन्द करने न करने की छूट है। जो कुछ देखना, ढूँढ़ना, परखना हो, वह कार्य विवाह से पूर्व ही समाप्त कर लेना चाहिए। जब विवाह हो गया, तो फिर यह कहने की गुजाइश नहीं रहती कि भूल हो गई, इसलिए साथी की उपेक्षा की जाए। जिस प्रकार के भी गुण-दोष युक्त साथी के साथ विवाह बन्धन में बंधे उसे अपनी और से कर्तव्यपालन समझकर पूरा करना ही एक मात्र मार्ग रह जाता है। इसी के लिए विवाह संस्कार का आयोजन किया जाता है। समाज के सम्भ्रान्त व्यक्तियों की, गुरुजनों की, कुटुम्बी सम्बन्धियों की, देवताओं की उपस्थिति इसीलिए इस धर्मानुष्ठान के अवसर पर आवश्यक मानी जाती है कि दोनों में से कोई इस कत्तर्य-बन्धन की उपेक्षा करे, तो उसे रोके और प्रताहित करें।
पति-पतनी इन सन्त्रान्त व्यक्तियों के सम्मुख अपने निश्चय की प्रतिज्ञा-बन्धन की घोषणा करते हैं। यह प्रतिज्ञा समारोह ही विवाह संस्कार है। इस अवसर पर दोनों की ही यह भावनाएँ गहराई तक अपने मन में जमानी चाहिए कि ये पृथक व्यक्तियों की सत्ता समाप्त कर एकीकरण की आत्मीयता में विकसित होते हैं। कोई किसी पर न तो हुकुमत जमायेगा और न अपने अधीन बशवतीं रखकर अपने लाभ या अहंकार की पूर्ति करना चाहेगा। वन वह करेगा, जिससे साथी को सुविधा मिलती हो । दोनों अपनी इच्छा आवश्कता को गौण और साथी की आवश्यकता को मुख्य मानकर सेवा और सहायता का भाव रखेंगे, उदारता एवं सहिष्णुता बरतेंगे, तभी गृहस्थी का ठीक तरह आगे बढ़ेगा। इस तथ्य को दोनों भली प्रकार हृदयंगम कर लें और इसी रीति-नीति को आजीवन अपनाये रहने का व्रत धारण करें, इसी प्रयोजन पेशs Not यह पुण्यसंस्कार आयोजित किया जाता है। इस बात को दोनों भली प्रकार समझ में और सच्चे मन से स्वीकार कर लें तो ही विवाह बन्धन में बंधे विवाह संस्कार आरम्भ करने से पूर्व या विवाह वेदी पर बिठाकर दोनों को यह तथ्य भली प्रकार समझा दिया जाए और उनकी सहमति मांगी जाए। यदि दोनों इन आदर्शों को अपनाये रहने की हार्दिक सहमति स्वीकृति दे तो ही विवाह संस्कार आगे बढ़ाया जाए।
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30 декабря 2021 г. 20:30:12
01:39:39
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