घागरा का युद्ध | Battle of Ghagra | बाबर का आखरी युद्ध | Last Battle of Babur | History of the World
इतिहास गवाह रहा है कि भारत ने कभी किसी मुल्क पर हमला नहीं किया. न ही कोई विजय अभियान शुरू किया. हां, अपनी संस्कृति और अस्मिता को बचाने के लिए तलवार जरूर उठाई है. भारत के राजपूती इतिहास में पानीपत और खानवा के युद्ध का नाम सबसे ऊपर है. यह वो लड़ाईयां थी, जिसमें लाखों सैनिकों के रक्त से धरती लाल हुई थी.
बहरहाल, इन जंगों के साथ ही इतिहास खत्म नहीं हुआ. भारत की धरती पर 1529 ई.में एक और युद्ध लड़ा गया, जिसे ‘घाघरा युद्ध के नाम से जाना जाता है. यह युद्ध भारत के शासकों में नहीं बल्कि, अफगान शासकों और बाबर के बीच हुई था.
उस दौर का यह एक अनोखा युद्ध था, जिसमें पहली बार सिपाहियों ने धरती के साथ-साथ बिहार में बहने वाली घाघरा नदी के पानी को भी लहू के रंग में रंग दिया था. वैसे तो इस युद्ध में बाबर का बाल भी बांका नहीं हुआ था, लेकिन जंग जीतने के बाद वह ऐसी गंभीर बीमारी का शिकार हुआ कि एक साल के भीतर ही उसकी मृत्यु हो गई.
इस लिहाज से इस युद्ध के बारे में जानना दिलचस्प हो जाता है-
भारत पर राज करने का सपना मुगलों से पहले अफगानियों ने देखा था. सुल्तान महमूद गजनवी पहला अफगान सुल्तान था, जिसने भारत पर आक्रमण किया. इसके बाद शाहबुद्दीन मोहम्मद गोरी ने आक्रमण कर पहली बार मुस्लिम शासन की नींव डाली.
1200 ईसा. से 1526 तक दिल्ली के तख्त पर मुस्लिम और अफगान यानि पठान शासकों का राज रहा. मुस्लिम शासकों में से अधिकांश तुर्की थे. इस लिहाज से दिल्ली सल्तनत पर आखिरी बार लोदी राजवंश ने अफगान शासक के रूप में शासन किया.
बाद में बाबर के आने के बाद हालात बदल गए. बाबर ने पानीपत की जंग में पठान शासन का अंत कर दिया. शेरशाह सूरी ने एक बार फिर अफगानियों को सत्ता दिलाने की कोशिश की, लेकिन बादशाह अकबर के आगे उनका बस नहीं चल सका. इस तरह दिल्ली का तख्त अफगानियों के हाथ से जो फिसला तो कभी वापिस नहीं आ सका.
बंगाल शासक भी नहीं चाहते थे कि बाबर का विजय अभियान जारी रहे, लेकिन सीधे तौर पर वह उसका सामना करने के लिए तैयार नही थें. यही वजह थी कि वे विद्रोहियों के जरिए अपने मन को तृप्त कर रहे थे.
जब बाबर चंदेरी के विजय अभियान में व्यस्त था, तब अफगान विद्रोहियों ने अवध में कोहराम मचाना शुरू कर दिया. हालांकि, इससे बाबर की तैयारियों पर तो कोई फर्क नहीं पड़ा, लेकिन वह विद्रोह को दबा पाने में नाकाम था. इसका परिणाम यह हुआ कि अफगानियों ने कन्नौज और शमशाबाद पर अधिपत्य कर लिया. अब वे आगरा को जीतने की योजना बना रहे थे.
चंदेरी का युद्ध खत्म होने के बार बाबर को अफगानियों के बढ़ते विद्रोह और आगरा पर अधिपत्य करने के प्रयास की जानकारी मिली.
वह जानता था कि यदि आगरा पर अफगानियों का राज हो गया, तो दिल्ली का तख्त पलट करने में उन्हें ज्यादा वक्त नहीं लगेगा. बाबर के पास विद्रोहियों को रोकने का अब केवल एक ही जरिया था. इस आग को हवा दे रहे हैं अपने विद्रोहियों से खुलकर लड़ाई करना.
बाबर ने इब्राहिम लोदी को दिल्ली के तख्त से उखाड़ फेंका था, लेकिन उसका भाई महमूद लोदी बाबर से हार का बदला लेना चाहता था. विद्रोहियों के बल पर उसने बिहार पर कब्जा कर लिया था. इस जंग में पूर्वी प्रदेशों के शासकों ने उसकी मदद की थी. वहीं दूसरी ओर चंदेरी के बाद बाबर ने अवध की तरफ रूख किया. बाबर के आने की खबर अफगानियों को फिर मुश्किल में डाल रही थी. विद्रोहियों के मुखिया अफगान नेता बिब्बन ने अवध से निकलकर बंगाल में शरण ली. उसके भागने के बाद बाबर ने लखनऊ को जीत लिया.
बाबर यह जान गया था कि बंगाल शासक नुसरत शाह महमूद लोदी की मदद कर रहा है, इसलिए बाबर ने बंगाल संदेश भिजवाया कि कोई भी अफगानियों की मदद न करे. हालांकि, इस बात को मानने से बंगाल शासक ने इंकार कर दिया. प्रस्ताव ठुकराने की खबर मिलने के बाद बाबर के सामने अफगानियों के साथ बंगाल शासक भी दुश्मन के तौर पर खड़ा था. विद्रोहियों के दमन के लिए 1529 को बाबर ने पहला हमला बोला. जहां पर सेना और विद्रोहियों के बीच मुठभेड़ हुई, वह जगह बिहार की घाघरा नदी का किनारा था.
जंग में महमूद लोदी ने भी हिस्सा लिया था. उसे उम्मीद थी कि पानीपत और खनवा के बाद चंदेरी का युद्ध करते हुए अब बाबर की हिम्मत जवाब दे गई होगी और उसे हराना मुश्किल नहीं होगा. इसलिए वह बिना किसी बड़ी तैयारी के ही इस जंग में कूद गया.
वहीं अफगानियों की आंखों में बदले की आग तो थी, लेकिन उनकी सेना कमजोर थी. इस कारण अफगानियों ने अपनी जान बचाने के लिए घाघरा नदी में उतर जाना बेहतर समझा, लेकिन बाबर की सेना ने वहां भी उनका पीछा नही छोड़ा. सैनिकों ने नाव पर युद्ध लड़ा और देखते ही देखते ‘घाघरा की जमीन और पानी’ दोनों सैनिकों के रक्त से लाल हो गए.
आखिर 6 मई 1529 की सुबह अफगानियों पर बाबर की सेना का, जो कहर टूटा वह उससे उभर न सके. शाम होने तक एक-एक अफगानी की लाश बिछा दी गई. महमूद को अपनी शिकस्त साफ दिखाई दे रही थी. वह मैदान छोड़कर बंगाल में जा छिपा.
महमूद को उम्मीद थी कि बाबर बंगाल तक उसका पीछा नहीं कर सकता, लेकिन गुप्तचरों ने बाबर को बंगाल में महमूद के होने के खबर दे दी. बाबर ने एक बार फिर बंगाल शासक को संधि के लिए संदेश भिजवाया.
बंगाल शासन अब तक अफगानियों को बाबर के खिलाफ इस्तेमाल कर रहे थे, लेकिन उनकी हार के बाद यह साफ था कि यदि बाबर ने बंगाल पर हमला किया तो राज्य बचाना मुश्किल है.
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बहरहाल, इन जंगों के साथ ही इतिहास खत्म नहीं हुआ. भारत की धरती पर 1529 ई.में एक और युद्ध लड़ा गया, जिसे ‘घाघरा युद्ध के नाम से जाना जाता है. यह युद्ध भारत के शासकों में नहीं बल्कि, अफगान शासकों और बाबर के बीच हुई था.
उस दौर का यह एक अनोखा युद्ध था, जिसमें पहली बार सिपाहियों ने धरती के साथ-साथ बिहार में बहने वाली घाघरा नदी के पानी को भी लहू के रंग में रंग दिया था. वैसे तो इस युद्ध में बाबर का बाल भी बांका नहीं हुआ था, लेकिन जंग जीतने के बाद वह ऐसी गंभीर बीमारी का शिकार हुआ कि एक साल के भीतर ही उसकी मृत्यु हो गई.
इस लिहाज से इस युद्ध के बारे में जानना दिलचस्प हो जाता है-
भारत पर राज करने का सपना मुगलों से पहले अफगानियों ने देखा था. सुल्तान महमूद गजनवी पहला अफगान सुल्तान था, जिसने भारत पर आक्रमण किया. इसके बाद शाहबुद्दीन मोहम्मद गोरी ने आक्रमण कर पहली बार मुस्लिम शासन की नींव डाली.
1200 ईसा. से 1526 तक दिल्ली के तख्त पर मुस्लिम और अफगान यानि पठान शासकों का राज रहा. मुस्लिम शासकों में से अधिकांश तुर्की थे. इस लिहाज से दिल्ली सल्तनत पर आखिरी बार लोदी राजवंश ने अफगान शासक के रूप में शासन किया.
बाद में बाबर के आने के बाद हालात बदल गए. बाबर ने पानीपत की जंग में पठान शासन का अंत कर दिया. शेरशाह सूरी ने एक बार फिर अफगानियों को सत्ता दिलाने की कोशिश की, लेकिन बादशाह अकबर के आगे उनका बस नहीं चल सका. इस तरह दिल्ली का तख्त अफगानियों के हाथ से जो फिसला तो कभी वापिस नहीं आ सका.
बंगाल शासक भी नहीं चाहते थे कि बाबर का विजय अभियान जारी रहे, लेकिन सीधे तौर पर वह उसका सामना करने के लिए तैयार नही थें. यही वजह थी कि वे विद्रोहियों के जरिए अपने मन को तृप्त कर रहे थे.
जब बाबर चंदेरी के विजय अभियान में व्यस्त था, तब अफगान विद्रोहियों ने अवध में कोहराम मचाना शुरू कर दिया. हालांकि, इससे बाबर की तैयारियों पर तो कोई फर्क नहीं पड़ा, लेकिन वह विद्रोह को दबा पाने में नाकाम था. इसका परिणाम यह हुआ कि अफगानियों ने कन्नौज और शमशाबाद पर अधिपत्य कर लिया. अब वे आगरा को जीतने की योजना बना रहे थे.
चंदेरी का युद्ध खत्म होने के बार बाबर को अफगानियों के बढ़ते विद्रोह और आगरा पर अधिपत्य करने के प्रयास की जानकारी मिली.
वह जानता था कि यदि आगरा पर अफगानियों का राज हो गया, तो दिल्ली का तख्त पलट करने में उन्हें ज्यादा वक्त नहीं लगेगा. बाबर के पास विद्रोहियों को रोकने का अब केवल एक ही जरिया था. इस आग को हवा दे रहे हैं अपने विद्रोहियों से खुलकर लड़ाई करना.
बाबर ने इब्राहिम लोदी को दिल्ली के तख्त से उखाड़ फेंका था, लेकिन उसका भाई महमूद लोदी बाबर से हार का बदला लेना चाहता था. विद्रोहियों के बल पर उसने बिहार पर कब्जा कर लिया था. इस जंग में पूर्वी प्रदेशों के शासकों ने उसकी मदद की थी. वहीं दूसरी ओर चंदेरी के बाद बाबर ने अवध की तरफ रूख किया. बाबर के आने की खबर अफगानियों को फिर मुश्किल में डाल रही थी. विद्रोहियों के मुखिया अफगान नेता बिब्बन ने अवध से निकलकर बंगाल में शरण ली. उसके भागने के बाद बाबर ने लखनऊ को जीत लिया.
बाबर यह जान गया था कि बंगाल शासक नुसरत शाह महमूद लोदी की मदद कर रहा है, इसलिए बाबर ने बंगाल संदेश भिजवाया कि कोई भी अफगानियों की मदद न करे. हालांकि, इस बात को मानने से बंगाल शासक ने इंकार कर दिया. प्रस्ताव ठुकराने की खबर मिलने के बाद बाबर के सामने अफगानियों के साथ बंगाल शासक भी दुश्मन के तौर पर खड़ा था. विद्रोहियों के दमन के लिए 1529 को बाबर ने पहला हमला बोला. जहां पर सेना और विद्रोहियों के बीच मुठभेड़ हुई, वह जगह बिहार की घाघरा नदी का किनारा था.
जंग में महमूद लोदी ने भी हिस्सा लिया था. उसे उम्मीद थी कि पानीपत और खनवा के बाद चंदेरी का युद्ध करते हुए अब बाबर की हिम्मत जवाब दे गई होगी और उसे हराना मुश्किल नहीं होगा. इसलिए वह बिना किसी बड़ी तैयारी के ही इस जंग में कूद गया.
वहीं अफगानियों की आंखों में बदले की आग तो थी, लेकिन उनकी सेना कमजोर थी. इस कारण अफगानियों ने अपनी जान बचाने के लिए घाघरा नदी में उतर जाना बेहतर समझा, लेकिन बाबर की सेना ने वहां भी उनका पीछा नही छोड़ा. सैनिकों ने नाव पर युद्ध लड़ा और देखते ही देखते ‘घाघरा की जमीन और पानी’ दोनों सैनिकों के रक्त से लाल हो गए.
आखिर 6 मई 1529 की सुबह अफगानियों पर बाबर की सेना का, जो कहर टूटा वह उससे उभर न सके. शाम होने तक एक-एक अफगानी की लाश बिछा दी गई. महमूद को अपनी शिकस्त साफ दिखाई दे रही थी. वह मैदान छोड़कर बंगाल में जा छिपा.
महमूद को उम्मीद थी कि बाबर बंगाल तक उसका पीछा नहीं कर सकता, लेकिन गुप्तचरों ने बाबर को बंगाल में महमूद के होने के खबर दे दी. बाबर ने एक बार फिर बंगाल शासक को संधि के लिए संदेश भिजवाया.
बंगाल शासन अब तक अफगानियों को बाबर के खिलाफ इस्तेमाल कर रहे थे, लेकिन उनकी हार के बाद यह साफ था कि यदि बाबर ने बंगाल पर हमला किया तो राज्य बचाना मुश्किल है.
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