अपने हुक्के की एक आवाज से Delhi को हिला देने वाले Baba Mahendra Singh Tikait के संघर्ष और सफलताए
6 अक्टूबर 1935 को मुजफ्फरनगर के सिसौली में चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत का जन्म हुआ । इनके पिता चौधरी चौहल सिंह टिकैत बालियान खाप के चौधरी थे। मात्र आठ साल की उम्र मे ही पिता का देहाँत हुआ तो इस नन्ही सी उम्र मे महेंद्र टिकैत के कंधो पर बालियान खाप की जिम्मेदारी आ पड़ी। चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत ने अपनी
सर्वखाप पंचायतों में समाज की उन बीमारियो को दूर किया जो किसी अमरबेल की तरह लगातार उलझती जा रही थी, और दीमक की तरह अंदर ही अंदर इंसान को खोखला बना रही थी, जैसे कि दहेज प्रथा, मृत्युभोज, दिखावा, नशाखोरी, भ्रूण हत्या और ऐसी ही तमाम सामाजिक कुरीतिया।
साल 1986 में बिजली, सिंचाई, और फसलों के मूल्य को लेकर पूरे उत्तर प्रदेश के किसान आंदोलित थे। तब एक किसान संगठन की आवश्यकता महसूस की गई। इसी बाबत 17 अक्टूबर 1986 को सिसौली में एक महापंचायत हुई, जिसमें सभी जाति-धर्म और सभी खापों के चौधरियों, किसानों व किसान प्रतिनिधियों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और सर्वसम्मति से चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत को भारतीय किसान यूनियन का राष्ट्रीय अध्यक्ष मनोनीत किया गया।
बीकेयू भले ही उन दिनों लोकल संगठन था, लेकिन किसानों की समस्यािएं तो पूरे प्रदेश में एक जैसी थीं। टिकैत ने देखा कि गांवों में बिजली न मिलने से किसान परेशान है, उसकी फसलें सूख रहीं हैं, चीनी मिलें उनके गन्नेू को औने-पौने दामों में खरीदती हैं तो 27 जनवरी 1987 को मुजफ्फरनगर के शामली कस्बेी में स्थित करमूखेड़ी बिजलीघर को घेर लिया और हजारों किसानों के साथ समस्याज निदान के लिए वहीं धरने पर बैठ गए। धरने पर बैठे किसानो को पुलिस-प्रशासन लगातार तीन दिन वहाँ से उठाने की कोशिश करता रहा लेकिन जब किसान नहीं हटे तो पुलिस ने उन पर सीधी गोलियां चला दीं।
इस गोलीबारी में दो किसान जयपाल और अकबर अली मारे गये, टिकैत के नेतृत्व में पूरा मैदान हर-हर महादेव और अल्लाह-हु-अकबर के नारों से गूंजने लगा, गोलीबारी में मारे गए दोनों युवकों के शवो को किसानों ने पुलिस को उठाने नहीं दिया। टिकैत खुद आंदोलन में शहीद हुए किसानों के अस्थिकलश गंगा में प्रवाहित करने शुक्रताल के लिए रवाना हुए, इस आंदोलन के बाद से उनके मुंह से निकले शब्दश किसानों के लिए अंतिम सत्य बन गए।
किसानों की मौत के बाद भी टिकैत ने आंदोलन को बंद नहीं किया बल्कि 1 अप्रैल 1987 को किसानों की सर्वखाप महापंचायत बुलाई गई जिसमें फैंसला लिया गया कि शामली तहसील या जिले में उनकी मांगों पर कोई विचार नहीं हो रहा, इसलिए कमिश्न री को घेरा जाए। तभी 29मई 1987 को चौधरी चरणसिंह का देहांत हो गया। शून्यता पर सवार किसान राजनीति इस कदर हावी हुई कि तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने चौधरी चरणसिंह के अंतिम संस्कार के लिए जगह देने से तक से इनकार कर दिया। और ताज्जुब तो इस बात का था कि किसी भी किसान नेता के मुंह से आवाज तक नहीं निकली, उनके भी नहीं जिनको नेता भी खुद चौधरी चरणसिंह ने ही बनाया था।
हालात को भांपकर चौधरी चरणसिंह के बेटे अजीतसिंह ने पार्थिव शरीर को पैतृक गांव नूरपुर ले जाने की तैयारी की। उनकी बेटी इस अपमान को सहन नहीं कर पाई और अंतिम उम्मीद के रूप में बाबा टिकैत से मदद मांगने पहुंची। बाबा टिकैत ने सिसौली से ही भारत सरकार को धमकी दी कि अगर भारत सरकार शाम तक जगह उपलब्ध नहीं कराती है तो किसान दिल्ली की तरफ कूच करेंगे और फिर अंतिम संस्कार की जगह भी किसान तय करेंगे और समय भी किसान तय करेंगे! सरकार को झुकना पड़ा और आज दिल्ली में चौधरी चरणसिंह की समाधी किसान घाट के रूप में मौजूद है।
बाबा टिकैत ने चौधरी चरणसिंह की मौत के बाद किसान राजनीति की शून्यता को पाटने का बीड़ा उठाया और लाखों किसानों के साथ 27 जनवरी 1988 को मेरठ कमिश्न री पर डेरा डाल दिया । किसानों के खाने के लिए वहीं पर भट्टियां सुलगा दीं गई । देखते ही देखते कमिश्नरी का मैदान भाकियू के आन्दोलन में तब्दील हो गया। लाखों की संख्या में आये इन किसानों के आन्दोलन की आग के शोले लखनऊ में जाकर भड़के। आन्दोलन को कुचलने के लिए तत्कालीन कमिश्नर वीके दीवान ने मुख्यमंत्री वीरबहादुर सिंह से बात करके 20 कंपनी पीएसी, और 11 सीआरपीएफ की कंपनी तैनात कराई। आन्दोलनकारियों को रोकने के लिए मेरठ-मुजफ्फरनगर मार्ग पर लगातार फ्लैग मार्च भी कराया गया। हुक्के की गुड़गुड़ाहट के साथ कमिश्नरी का मैदान पहली बार किसानियत की ताकत से मौजू हुआ। नित्यल कर्मों के लिए कमिश्न री के मैदान को सुनिश्चित कर लिया गया। 35 सूत्रीय मांगों को लेकर यह आंदोलन चौबीस दिन तक शांतिपूर्ण ढंग से चलता रहा।
किसी की हिम्मत नहीं थी कि इस आन्दोलन के दौरान वाहन को धरनास्थल की ओर ले जा सके। लोकदल के अध्यक्ष हेमवती नंदन बहुगुणा, पूर्व राज्यपाल वीरेन्द्र वर्मा, चौधरी चरण सिंह की पत्नी गायत्री देवी, चौधरी अजित सिंह, मेनका गांधी, वीपी सिंह, सुंदर लाल बहुगुणा, शाही इमाम अब्दुल्ला बुखारी समेत देश भर के नेताओं का यहां तांता लगा रहा और टिकैत के आंदोलन का समर्थन किया। यह एक ऐसा मंजर था जो न किसी ने देखा था और न ही शायद देखने को मिले। शहर के लोग सोचते थे कि क्या किसान आंदोलन ऐसा होता है, क्या ऐसे अपनी मांगें मनवायी जाती हैं, क्या सरकार को इस तरह झुकाया जाता है, ऐसे तमाम सवाल लोगों की जबान पर थे।
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सर्वखाप पंचायतों में समाज की उन बीमारियो को दूर किया जो किसी अमरबेल की तरह लगातार उलझती जा रही थी, और दीमक की तरह अंदर ही अंदर इंसान को खोखला बना रही थी, जैसे कि दहेज प्रथा, मृत्युभोज, दिखावा, नशाखोरी, भ्रूण हत्या और ऐसी ही तमाम सामाजिक कुरीतिया।
साल 1986 में बिजली, सिंचाई, और फसलों के मूल्य को लेकर पूरे उत्तर प्रदेश के किसान आंदोलित थे। तब एक किसान संगठन की आवश्यकता महसूस की गई। इसी बाबत 17 अक्टूबर 1986 को सिसौली में एक महापंचायत हुई, जिसमें सभी जाति-धर्म और सभी खापों के चौधरियों, किसानों व किसान प्रतिनिधियों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और सर्वसम्मति से चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत को भारतीय किसान यूनियन का राष्ट्रीय अध्यक्ष मनोनीत किया गया।
बीकेयू भले ही उन दिनों लोकल संगठन था, लेकिन किसानों की समस्यािएं तो पूरे प्रदेश में एक जैसी थीं। टिकैत ने देखा कि गांवों में बिजली न मिलने से किसान परेशान है, उसकी फसलें सूख रहीं हैं, चीनी मिलें उनके गन्नेू को औने-पौने दामों में खरीदती हैं तो 27 जनवरी 1987 को मुजफ्फरनगर के शामली कस्बेी में स्थित करमूखेड़ी बिजलीघर को घेर लिया और हजारों किसानों के साथ समस्याज निदान के लिए वहीं धरने पर बैठ गए। धरने पर बैठे किसानो को पुलिस-प्रशासन लगातार तीन दिन वहाँ से उठाने की कोशिश करता रहा लेकिन जब किसान नहीं हटे तो पुलिस ने उन पर सीधी गोलियां चला दीं।
इस गोलीबारी में दो किसान जयपाल और अकबर अली मारे गये, टिकैत के नेतृत्व में पूरा मैदान हर-हर महादेव और अल्लाह-हु-अकबर के नारों से गूंजने लगा, गोलीबारी में मारे गए दोनों युवकों के शवो को किसानों ने पुलिस को उठाने नहीं दिया। टिकैत खुद आंदोलन में शहीद हुए किसानों के अस्थिकलश गंगा में प्रवाहित करने शुक्रताल के लिए रवाना हुए, इस आंदोलन के बाद से उनके मुंह से निकले शब्दश किसानों के लिए अंतिम सत्य बन गए।
किसानों की मौत के बाद भी टिकैत ने आंदोलन को बंद नहीं किया बल्कि 1 अप्रैल 1987 को किसानों की सर्वखाप महापंचायत बुलाई गई जिसमें फैंसला लिया गया कि शामली तहसील या जिले में उनकी मांगों पर कोई विचार नहीं हो रहा, इसलिए कमिश्न री को घेरा जाए। तभी 29मई 1987 को चौधरी चरणसिंह का देहांत हो गया। शून्यता पर सवार किसान राजनीति इस कदर हावी हुई कि तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने चौधरी चरणसिंह के अंतिम संस्कार के लिए जगह देने से तक से इनकार कर दिया। और ताज्जुब तो इस बात का था कि किसी भी किसान नेता के मुंह से आवाज तक नहीं निकली, उनके भी नहीं जिनको नेता भी खुद चौधरी चरणसिंह ने ही बनाया था।
हालात को भांपकर चौधरी चरणसिंह के बेटे अजीतसिंह ने पार्थिव शरीर को पैतृक गांव नूरपुर ले जाने की तैयारी की। उनकी बेटी इस अपमान को सहन नहीं कर पाई और अंतिम उम्मीद के रूप में बाबा टिकैत से मदद मांगने पहुंची। बाबा टिकैत ने सिसौली से ही भारत सरकार को धमकी दी कि अगर भारत सरकार शाम तक जगह उपलब्ध नहीं कराती है तो किसान दिल्ली की तरफ कूच करेंगे और फिर अंतिम संस्कार की जगह भी किसान तय करेंगे और समय भी किसान तय करेंगे! सरकार को झुकना पड़ा और आज दिल्ली में चौधरी चरणसिंह की समाधी किसान घाट के रूप में मौजूद है।
बाबा टिकैत ने चौधरी चरणसिंह की मौत के बाद किसान राजनीति की शून्यता को पाटने का बीड़ा उठाया और लाखों किसानों के साथ 27 जनवरी 1988 को मेरठ कमिश्न री पर डेरा डाल दिया । किसानों के खाने के लिए वहीं पर भट्टियां सुलगा दीं गई । देखते ही देखते कमिश्नरी का मैदान भाकियू के आन्दोलन में तब्दील हो गया। लाखों की संख्या में आये इन किसानों के आन्दोलन की आग के शोले लखनऊ में जाकर भड़के। आन्दोलन को कुचलने के लिए तत्कालीन कमिश्नर वीके दीवान ने मुख्यमंत्री वीरबहादुर सिंह से बात करके 20 कंपनी पीएसी, और 11 सीआरपीएफ की कंपनी तैनात कराई। आन्दोलनकारियों को रोकने के लिए मेरठ-मुजफ्फरनगर मार्ग पर लगातार फ्लैग मार्च भी कराया गया। हुक्के की गुड़गुड़ाहट के साथ कमिश्नरी का मैदान पहली बार किसानियत की ताकत से मौजू हुआ। नित्यल कर्मों के लिए कमिश्न री के मैदान को सुनिश्चित कर लिया गया। 35 सूत्रीय मांगों को लेकर यह आंदोलन चौबीस दिन तक शांतिपूर्ण ढंग से चलता रहा।
किसी की हिम्मत नहीं थी कि इस आन्दोलन के दौरान वाहन को धरनास्थल की ओर ले जा सके। लोकदल के अध्यक्ष हेमवती नंदन बहुगुणा, पूर्व राज्यपाल वीरेन्द्र वर्मा, चौधरी चरण सिंह की पत्नी गायत्री देवी, चौधरी अजित सिंह, मेनका गांधी, वीपी सिंह, सुंदर लाल बहुगुणा, शाही इमाम अब्दुल्ला बुखारी समेत देश भर के नेताओं का यहां तांता लगा रहा और टिकैत के आंदोलन का समर्थन किया। यह एक ऐसा मंजर था जो न किसी ने देखा था और न ही शायद देखने को मिले। शहर के लोग सोचते थे कि क्या किसान आंदोलन ऐसा होता है, क्या ऐसे अपनी मांगें मनवायी जाती हैं, क्या सरकार को इस तरह झुकाया जाता है, ऐसे तमाम सवाल लोगों की जबान पर थे।
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