रामानंद सागर कृत श्री कृष्ण भाग 88- श्री कृष्ण का बलराम को मनाना |अर्जुन सुभद्रा सम्बन्ध का प्रारम्भ
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बजरंग बाण | पाठ करै बजरंग बाण की हनुमत रक्षा करै प्राण की | जय श्री हनुमान | तिलक प्रस्तुति 🙏 भक्त को भगवान से और जिज्ञासु को ज्ञान से जोड़ने वाला एक अनोखा अनुभव। तिलक प्रस्तुत करते हैं दिव्य भूमि भारत के प्रसिद्ध धार्मिक स्थानों के अलौकिक दर्शन। दिव्य स्थलों की तीर्थ यात्रा और संपूर्ण भागवत दर्शन का आनंद।
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Ramanand Sagar's Shree Krishna Episode 88 - Shri Krishna Ka Balarama Ko Manana. Arjun Subhadra Sambandha Ka Prarambha.
द्वारिका में अर्जुन श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा को एक बिगड़ैल हाथी से बचाते हैं। हस्तिनापुर में शकुनि बलराम को श्रीकृष्ण के विरुद्ध भड़का कर ऐसी चाल चलता है कि बलराम दुर्योधन को अपना शिष्य बनाकर उसे गदायुद्ध लड़ना सिखाने लगते हैं। श्रीकृष्ण रुक्मिणी से कहते हैं कि भाई भाई के बीच में दरार डालने की कुटिल चाल शकुनि ने पहले कौरवों और पाण्डवों के बीच चली थी और आज वही चाल उसने कृष्ण और बलराम के बीच चली है। शकुनि की दूसरी योजना यह है कि किसी प्रकार सुभद्रा का विवाह दुर्योधन से हो जाये ताकि भविष्य में जब कौरवों और पाण्डवों के बीच सत्ता संघर्ष हो तो बलराम उनके पक्ष में खड़े हों। इसके लिये शकुनि बलराम को चौसर खेलने के लिये आमंत्रित करता है और उन्हें प्रसन्न करने के लिये जानबूझकर बाजी हारता है। बलराम के जाने के बाद शकुनि दुर्योधन से कहता है कि मुझे अपनी इस हार में तुम्हारी और सुभद्रा के विवाह की शहनाई सुनायी पड़ रही है। श्रीकृष्ण जानते हैं कि बलराम और श्रीकृष्ण के बीच दरार डालने के लिये शकुनि ने बलराम के अहम को जागृत किया है। तो अब श्रीकृष्ण भी उसी की काट करने के लिये अगले दिन हस्तिनापुर पहुँच जाते हैं और बलराम से कहते हैं कि आपके द्वारिका छोड़ने के बाद से ऐसा लगता है कि हमारा नगर प्राणविहीन हो गया है। श्रीकृष्ण पूछते हैं कि कहीं आप मुझसे असन्तुष्ट तो नहीं हैं। मैं आपके बिना नहीं रह सकता। वह बलराम को उनकी पत्नी रेवती की बेचैनी भी बताते हैं। बलराम श्रीकृष्ण की अपनत्व भरी मीठी बातों से भावुक होते हैं और कहते है कि वो कभी द्वारिका और कृष्ण को नहीं छोड़ सकते हैं। तब श्रीकृष्ण वापस द्वारिका चलने को कहते हैं। इसपर बलराम कहते हैं कि मैं दुर्योधन को गदायुद्ध सिखाने के लिये वचनबद्ध हूँ। शिक्षा पूरी होते ही मैं वापस आ जाऊँगा। श्रीकृष्ण कहते हैं कि बलदाऊ भैया, आप कितने भोले हैं। अपनों को छोड़कर पराये लोगों में निवास कर रहे हैं। बलराम कहते हैं कि दुर्योधन कोई पराया नहीं है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि अपना भी नहीं है। पाण्डव हमारे अपने हैं क्योंकि उनकी माता कुन्ती हमारी सगी बुआ हैं। कौरव तो पाण्डवों के भाई हैं, इसलिये हम उन्हें अपना मानते हैं। बलराम श्रीकृष्ण से सहमत नहीं होते हैं और इस विषय में आगे बात करने से इनकार कर देते हैं। इसके बाद बलराम के अनुरोध पर श्रीकृष्ण उन्हें मुरली सुनाते हैं और फिर अन्तर्ध्यान होकर वापस द्वारिका चले जाते हैं। द्वारिका में उनके और रुक्मिणी के बीच वार्तालाप होता है। श्रीकृष्ण रुक्मिणी से कहते हैं कि मेरे भोले भाले दाऊ भैया शकुनि के चंगुल में फँस चुके हैं और भविष्य में जो अनर्थ होने वाला है, मैं उसकी चिन्ता कर रहा हूँ। देवी रुक्मिणी उनसे कहती हैं कि आप भविष्य की चिन्ता कर रहे हैं किन्तु कुछ वर्तमान की भी तो सोचिये। आपकी माया ने दोनों के मन में प्रेम के बीज तो डाल दिये हैं किन्तु दोनों ही उस प्रेम को अभिव्यक्त करने में संकोच कर रहे हैं। ऐसे में सम्बन्ध कैसे होगा। श्रीकृष्ण कहते हैं कि यह सम्बन्ध जरूर होगा क्योंकि भविष्य में कौरवों और पाण्डवों की लड़ाई में समस्त कुरुवंश का खात्मा हो जायेगा और केवल एक फूल बचेगा और यह फूल सुभद्रा के गर्भ से पैदा होने वाला है। यही विधि का विधान है। रुक्मिणी श्रीकृष्ण की बातों से सिहर हो उठती हैं। श्रीकृष्ण आगे कहते हैं कि भविष्य मे भीषण युद्ध होने वाला है जिसमें भाई भाई के प्राण हरण करेगा, पिता पुत्र को मारेगा। शिष्य गुरु को जीवित नहीं छोड़ेगा। कुरु जैसे महान साम्राज्य का नाश हो जायेगा। इसलिये मैं सुभद्रा और अर्जुन का विवाह कराकर इस कुरुवंश के एक वंशज को बचाना चाहता हूँ। देवी रुक्मिणी कहती हैं कि इसके लिये आप पहले दोनों का मिलन तो कराइये। देखिये, दोनों शिकार करने गये हैं किन्तु एक पहाड़ी के इस ओर है और दूसरा उस ओर। इसपर श्रीकृष्ण योगमाया का आह्वान करते हैं और उनसे ऐसी माया रचने को कहते हैं जिससे सुभद्र और अर्जुन एक दूसरे के नजदीक आ जायें। इसके बाद एक राक्षस वन में सुभद्रा के रथ का मार्ग रोकता है और भयंकर अट्टहास कर उन्हें भयभीत करता है। सुभद्रा के बाण राक्षस पर आघात नहीं पहुँचा पाते। राक्षस सुभद्रा को रथ समेत उठाकर आकाश मार्ग से जाने लगता है। सुभद्रा अपनी रक्षा के लिये भाई कृष्ण को पुकारती हैं। अर्जुन यह दृश्य देखते हैं और राक्षस को ललकारते हैं। अर्जुन के साधारण बाण मायावी राक्षस को नहीं भेद पाते। तब अर्जुन दिव्य बाण का संधान कर राक्षण को आघात पहुचाते हैं। राक्षस को वहाँ से भागना पड़ता है किन्तु वह इसके पहले सुभद्रा को आग की ज्वाला के बीच घेर देता है। सुभद्रा सहायता के लिये अर्जुन को पुकारती हैं। अर्जुन अग्निघेरे को लाँघकर सुभद्रा को सुरक्षित बाहर निकाल लाते हैं। सुभद्रा अचेत हो चुकी हैं। उन्हें चेतना में लाने के लिये अर्जुन उन्हें एक पहाड़ी झरने के नीचे ले जाते हैं। इस तरह योगमाया दोनों को निकट लाने का कार्य पूरा करने में सफल होती हैं। अर्जुन झरने का शीतल जल पिलाकर सुभद्रा की तपिश शान्त करते हैं। उनके घावों पर जड़ी बूटी लगाते हैं। इसके बाद अर्जुन सुभद्रा के प्रति अपने प्रेम की अभिव्यक्ति करते हैं। सुभद्रा शर्माते हुए उनके प्रेम को स्वीकार करती हैं।
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द्वारिका में अर्जुन श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा को एक बिगड़ैल हाथी से बचाते हैं। हस्तिनापुर में शकुनि बलराम को श्रीकृष्ण के विरुद्ध भड़का कर ऐसी चाल चलता है कि बलराम दुर्योधन को अपना शिष्य बनाकर उसे गदायुद्ध लड़ना सिखाने लगते हैं। श्रीकृष्ण रुक्मिणी से कहते हैं कि भाई भाई के बीच में दरार डालने की कुटिल चाल शकुनि ने पहले कौरवों और पाण्डवों के बीच चली थी और आज वही चाल उसने कृष्ण और बलराम के बीच चली है। शकुनि की दूसरी योजना यह है कि किसी प्रकार सुभद्रा का विवाह दुर्योधन से हो जाये ताकि भविष्य में जब कौरवों और पाण्डवों के बीच सत्ता संघर्ष हो तो बलराम उनके पक्ष में खड़े हों। इसके लिये शकुनि बलराम को चौसर खेलने के लिये आमंत्रित करता है और उन्हें प्रसन्न करने के लिये जानबूझकर बाजी हारता है। बलराम के जाने के बाद शकुनि दुर्योधन से कहता है कि मुझे अपनी इस हार में तुम्हारी और सुभद्रा के विवाह की शहनाई सुनायी पड़ रही है। श्रीकृष्ण जानते हैं कि बलराम और श्रीकृष्ण के बीच दरार डालने के लिये शकुनि ने बलराम के अहम को जागृत किया है। तो अब श्रीकृष्ण भी उसी की काट करने के लिये अगले दिन हस्तिनापुर पहुँच जाते हैं और बलराम से कहते हैं कि आपके द्वारिका छोड़ने के बाद से ऐसा लगता है कि हमारा नगर प्राणविहीन हो गया है। श्रीकृष्ण पूछते हैं कि कहीं आप मुझसे असन्तुष्ट तो नहीं हैं। मैं आपके बिना नहीं रह सकता। वह बलराम को उनकी पत्नी रेवती की बेचैनी भी बताते हैं। बलराम श्रीकृष्ण की अपनत्व भरी मीठी बातों से भावुक होते हैं और कहते है कि वो कभी द्वारिका और कृष्ण को नहीं छोड़ सकते हैं। तब श्रीकृष्ण वापस द्वारिका चलने को कहते हैं। इसपर बलराम कहते हैं कि मैं दुर्योधन को गदायुद्ध सिखाने के लिये वचनबद्ध हूँ। शिक्षा पूरी होते ही मैं वापस आ जाऊँगा। श्रीकृष्ण कहते हैं कि बलदाऊ भैया, आप कितने भोले हैं। अपनों को छोड़कर पराये लोगों में निवास कर रहे हैं। बलराम कहते हैं कि दुर्योधन कोई पराया नहीं है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि अपना भी नहीं है। पाण्डव हमारे अपने हैं क्योंकि उनकी माता कुन्ती हमारी सगी बुआ हैं। कौरव तो पाण्डवों के भाई हैं, इसलिये हम उन्हें अपना मानते हैं। बलराम श्रीकृष्ण से सहमत नहीं होते हैं और इस विषय में आगे बात करने से इनकार कर देते हैं। इसके बाद बलराम के अनुरोध पर श्रीकृष्ण उन्हें मुरली सुनाते हैं और फिर अन्तर्ध्यान होकर वापस द्वारिका चले जाते हैं। द्वारिका में उनके और रुक्मिणी के बीच वार्तालाप होता है। श्रीकृष्ण रुक्मिणी से कहते हैं कि मेरे भोले भाले दाऊ भैया शकुनि के चंगुल में फँस चुके हैं और भविष्य में जो अनर्थ होने वाला है, मैं उसकी चिन्ता कर रहा हूँ। देवी रुक्मिणी उनसे कहती हैं कि आप भविष्य की चिन्ता कर रहे हैं किन्तु कुछ वर्तमान की भी तो सोचिये। आपकी माया ने दोनों के मन में प्रेम के बीज तो डाल दिये हैं किन्तु दोनों ही उस प्रेम को अभिव्यक्त करने में संकोच कर रहे हैं। ऐसे में सम्बन्ध कैसे होगा। श्रीकृष्ण कहते हैं कि यह सम्बन्ध जरूर होगा क्योंकि भविष्य में कौरवों और पाण्डवों की लड़ाई में समस्त कुरुवंश का खात्मा हो जायेगा और केवल एक फूल बचेगा और यह फूल सुभद्रा के गर्भ से पैदा होने वाला है। यही विधि का विधान है। रुक्मिणी श्रीकृष्ण की बातों से सिहर हो उठती हैं। श्रीकृष्ण आगे कहते हैं कि भविष्य मे भीषण युद्ध होने वाला है जिसमें भाई भाई के प्राण हरण करेगा, पिता पुत्र को मारेगा। शिष्य गुरु को जीवित नहीं छोड़ेगा। कुरु जैसे महान साम्राज्य का नाश हो जायेगा। इसलिये मैं सुभद्रा और अर्जुन का विवाह कराकर इस कुरुवंश के एक वंशज को बचाना चाहता हूँ। देवी रुक्मिणी कहती हैं कि इसके लिये आप पहले दोनों का मिलन तो कराइये। देखिये, दोनों शिकार करने गये हैं किन्तु एक पहाड़ी के इस ओर है और दूसरा उस ओर। इसपर श्रीकृष्ण योगमाया का आह्वान करते हैं और उनसे ऐसी माया रचने को कहते हैं जिससे सुभद्र और अर्जुन एक दूसरे के नजदीक आ जायें। इसके बाद एक राक्षस वन में सुभद्रा के रथ का मार्ग रोकता है और भयंकर अट्टहास कर उन्हें भयभीत करता है। सुभद्रा के बाण राक्षस पर आघात नहीं पहुँचा पाते। राक्षस सुभद्रा को रथ समेत उठाकर आकाश मार्ग से जाने लगता है। सुभद्रा अपनी रक्षा के लिये भाई कृष्ण को पुकारती हैं। अर्जुन यह दृश्य देखते हैं और राक्षस को ललकारते हैं। अर्जुन के साधारण बाण मायावी राक्षस को नहीं भेद पाते। तब अर्जुन दिव्य बाण का संधान कर राक्षण को आघात पहुचाते हैं। राक्षस को वहाँ से भागना पड़ता है किन्तु वह इसके पहले सुभद्रा को आग की ज्वाला के बीच घेर देता है। सुभद्रा सहायता के लिये अर्जुन को पुकारती हैं। अर्जुन अग्निघेरे को लाँघकर सुभद्रा को सुरक्षित बाहर निकाल लाते हैं। सुभद्रा अचेत हो चुकी हैं। उन्हें चेतना में लाने के लिये अर्जुन उन्हें एक पहाड़ी झरने के नीचे ले जाते हैं। इस तरह योगमाया दोनों को निकट लाने का कार्य पूरा करने में सफल होती हैं। अर्जुन झरने का शीतल जल पिलाकर सुभद्रा की तपिश शान्त करते हैं। उनके घावों पर जड़ी बूटी लगाते हैं। इसके बाद अर्जुन सुभद्रा के प्रति अपने प्रेम की अभिव्यक्ति करते हैं। सुभद्रा शर्माते हुए उनके प्रेम को स्वीकार करती हैं।
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