रामानंद सागर कृत श्री कृष्ण भाग 85 -युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ | श्रीकृष्ण द्वारा शिशुपाल का वध
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Ramanand Sagar's Shree Krishna Episode 85 - Yudhishthira Rajsu Yajna. Shree Krishna Dwara Shishupala Ka Vadh.
युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ को सफल बनाने के लिये मगध राज्य को इन्द्रप्रस्थ के आधीन लाना आवश्यक था। अतएव श्रीकृष्ण मगध नरेश जरासंध को भीम से द्वन्दयुद्ध करने के लिये उकसाते हैं। भीम में दस हजार हाथियों का बल था। वह जरासंध को धूल चटा देता है और जरासंध के पैर चीरकर शरीर के दो टुकड़े कर देता है। इसके बाद एक बड़ी विचित्र घटना होती है। शरीर के दोनों टुकड़े कुछ क्षण तड़पते हैं और फिर आपस में जुड़ जाते हैं। जरासंध जीवित हो उठता है और पुनः भीम से मल्लयुद्ध करने लगता है। तब श्रीकृष्ण एक पत्ते के दो टुकड़े करते हैं और उन्हें विपरीत दिशा में फेंक कर भीम को संकेत देते हैं। भीम उनका संकेत समझ जाता है और अगली बार वह जरासंध को चीरने के बाद उसके शरीर के दोनों टुकड़े विपरीत दिशा में फेंकता है। इससे दोनों टुकड़े आपस में जुड़ नहीं पाते और जरासंध की मृत्यु हो जाती है। जरासंध की मौत के बाद श्रीकृष्ण अपनी शरण में आये उसके पुत्र सहदेव को मगध का राजा बना देते हैं और युधिष्ठिर के राजसूय सम्मिलित होने का आदेश देते हैं। इसके बाद जरासंध द्वारा बन्दी बनाये गये छियासी राजाओं को कारागार से मुक्त कर दिया जाता है। श्रीकृष्ण उनसे कहते हैं कि आज से आप स्वतन्त्र हैं किन्तु आपकी सत्ता इन्द्रप्रस्थ नरेश महाराज युधिष्ठिर के आधीन है। उधर हस्तिनापुर में शकुनि दुर्योधन को अपनी चाल समझाते हुए कहता है कि जरासंध की मृत्यु के बाद पूरे भारत में कोई ऐसा योद्धा नहीं है जो भीम को गदायुद्ध में परास्त कर सके, केवल एक बलराम को छोड़ के। तुम राजसूय यज्ञ में युधिष्ठिर का छोटा भाई बनकर जाओ और और वहाँ बलराम को चिकनी चुपड़ी बातों से अपना गुरु बना लो। वह तुम्हें गदायुद्ध में प्रवीण कर देगा और समय आने पर भीम तुम्हारे सामने घुटने टेक देगा। इन्द्रप्रस्थ में राजसूय यज्ञ में शामिल होने के लिये समस्त आर्यावत से राजा महाराजा पधारते हैं। यज्ञ के विधान के अनुसार महाराज युधिष्ठिर को सबसे पहले किसी अग्रपुरुष की चरण पूजा करनी होती है। अग्रपुरुष के लिये भीष्म द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण का नाम प्रस्तावित करते हैं। किन्तु चेदि नरेश शिशुपाल इसका विरोध करता है। वह कहता है कि कृष्ण अग्रपूजा का अधिकारी नहीं हो सकता। वह युद्ध का भगोड़ा है। महाराज जरासंध को युद्ध में पीठ दिखाकर भाग चुका है। शिशुपाल अभद्रता पर उतर आता है और कहता है कि कृष्ण कामी और स्त्रीलोलुप है। इसके तो पिता का पता भी नहीं है। कभी कहता है कि यह ग्वाले नन्द का पुत्र हूँ तो कभी राजवंश के वसुदेव को अपना पिता बताता है। बलराम क्रोध में आकर शिशुपाल की तरफ बढ़ते हैं किन्तु श्रीकृष्ण उनका हाथ पकड़ कर रोक लेते हैं और कहते हैं कि शिशुपाल की माता श्रुतिसुभा हमारी बुआ हैं और कुन्ती बुआ की बड़ी बहन हैं। मैं उन्हें वचन दे चुका हूँ कि मैं इसके सौ अपराध क्षमा करुँगा। इसके बाद श्रीकृष्ण के प्रति अपशब्द बोलना जारी रखते हुए जैसे ही शिशुपाल अपने सौ अपराध पूरे करता है, श्रीकृष्ण सुदर्शन चक्र से उसका शीश काट देते हैं। शिशुपाल के मृत शरीर से उसकी आत्मा बाहर निकलती है और एक तेजस्वी रूप धारण कर भगवान श्रीकृष्ण के चतुर्भुज रूप को नमन करती है। यह तेजस्वी रूप कहता है कि हे दीनदयाल, अपने पार्षद जय का प्रणाम स्वीकार कीजिये। श्रीकृष्ण उसका प्रणाम स्वीकार करते हुए कहते हैं कि तुम्हारा कल्याण हो। तीन जन्मों के पश्चात आज तुम श्रापमुक्त हो गये हो। सो तुम बैकुण्ठ लोक में वापस जाओ। देखो, माता लक्ष्मी ने तुम्हें लिवाने के लिये दिव्य विमान भेजा है। शापमुक्त होकर पार्षद जय विमान से वापस बैकुण्ठ धाम को जाता है। स्वर्गलोक के द्वार पर पार्षद जय ब्रह्मर्षि नारद से जानना चाहता है कि उसे किस शाप से मुक्ति मिली है। नारद जी उसे स्मरण कराते हुए हैं कि तुम्हें सनद कुमारों ने श्राप दिया था। नारद पूरी कथा का वर्णन करते हैं। भगवान विष्णु के दो सेवक जय और विजय उनकी सेवा करते-करते उनके प्रमुख पार्षद बन गये थे। दानों के मन में अहंकार जागृत हो गया कि उनकी अनुमति के बिना प्रभु के महल में कोई नहीं जा सकता है। एक दिन ब्रह्माजी के चारों पुत्र सनक और सनानन्दन आदि भगवान के दर्शन हेतु वहाँ आये। दोनों पार्षदों ने उन्हें द्वार पर रोक दिया। ब्रह्मकुमारों ने क्रोधित होकर जय विजय को श्राप दे दिया तुम दोनों मृत्युलोक में जाकर निवास करो। तुम बैकुण्ठ में निवास के योग्य नहीं हो।
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युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ को सफल बनाने के लिये मगध राज्य को इन्द्रप्रस्थ के आधीन लाना आवश्यक था। अतएव श्रीकृष्ण मगध नरेश जरासंध को भीम से द्वन्दयुद्ध करने के लिये उकसाते हैं। भीम में दस हजार हाथियों का बल था। वह जरासंध को धूल चटा देता है और जरासंध के पैर चीरकर शरीर के दो टुकड़े कर देता है। इसके बाद एक बड़ी विचित्र घटना होती है। शरीर के दोनों टुकड़े कुछ क्षण तड़पते हैं और फिर आपस में जुड़ जाते हैं। जरासंध जीवित हो उठता है और पुनः भीम से मल्लयुद्ध करने लगता है। तब श्रीकृष्ण एक पत्ते के दो टुकड़े करते हैं और उन्हें विपरीत दिशा में फेंक कर भीम को संकेत देते हैं। भीम उनका संकेत समझ जाता है और अगली बार वह जरासंध को चीरने के बाद उसके शरीर के दोनों टुकड़े विपरीत दिशा में फेंकता है। इससे दोनों टुकड़े आपस में जुड़ नहीं पाते और जरासंध की मृत्यु हो जाती है। जरासंध की मौत के बाद श्रीकृष्ण अपनी शरण में आये उसके पुत्र सहदेव को मगध का राजा बना देते हैं और युधिष्ठिर के राजसूय सम्मिलित होने का आदेश देते हैं। इसके बाद जरासंध द्वारा बन्दी बनाये गये छियासी राजाओं को कारागार से मुक्त कर दिया जाता है। श्रीकृष्ण उनसे कहते हैं कि आज से आप स्वतन्त्र हैं किन्तु आपकी सत्ता इन्द्रप्रस्थ नरेश महाराज युधिष्ठिर के आधीन है। उधर हस्तिनापुर में शकुनि दुर्योधन को अपनी चाल समझाते हुए कहता है कि जरासंध की मृत्यु के बाद पूरे भारत में कोई ऐसा योद्धा नहीं है जो भीम को गदायुद्ध में परास्त कर सके, केवल एक बलराम को छोड़ के। तुम राजसूय यज्ञ में युधिष्ठिर का छोटा भाई बनकर जाओ और और वहाँ बलराम को चिकनी चुपड़ी बातों से अपना गुरु बना लो। वह तुम्हें गदायुद्ध में प्रवीण कर देगा और समय आने पर भीम तुम्हारे सामने घुटने टेक देगा। इन्द्रप्रस्थ में राजसूय यज्ञ में शामिल होने के लिये समस्त आर्यावत से राजा महाराजा पधारते हैं। यज्ञ के विधान के अनुसार महाराज युधिष्ठिर को सबसे पहले किसी अग्रपुरुष की चरण पूजा करनी होती है। अग्रपुरुष के लिये भीष्म द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण का नाम प्रस्तावित करते हैं। किन्तु चेदि नरेश शिशुपाल इसका विरोध करता है। वह कहता है कि कृष्ण अग्रपूजा का अधिकारी नहीं हो सकता। वह युद्ध का भगोड़ा है। महाराज जरासंध को युद्ध में पीठ दिखाकर भाग चुका है। शिशुपाल अभद्रता पर उतर आता है और कहता है कि कृष्ण कामी और स्त्रीलोलुप है। इसके तो पिता का पता भी नहीं है। कभी कहता है कि यह ग्वाले नन्द का पुत्र हूँ तो कभी राजवंश के वसुदेव को अपना पिता बताता है। बलराम क्रोध में आकर शिशुपाल की तरफ बढ़ते हैं किन्तु श्रीकृष्ण उनका हाथ पकड़ कर रोक लेते हैं और कहते हैं कि शिशुपाल की माता श्रुतिसुभा हमारी बुआ हैं और कुन्ती बुआ की बड़ी बहन हैं। मैं उन्हें वचन दे चुका हूँ कि मैं इसके सौ अपराध क्षमा करुँगा। इसके बाद श्रीकृष्ण के प्रति अपशब्द बोलना जारी रखते हुए जैसे ही शिशुपाल अपने सौ अपराध पूरे करता है, श्रीकृष्ण सुदर्शन चक्र से उसका शीश काट देते हैं। शिशुपाल के मृत शरीर से उसकी आत्मा बाहर निकलती है और एक तेजस्वी रूप धारण कर भगवान श्रीकृष्ण के चतुर्भुज रूप को नमन करती है। यह तेजस्वी रूप कहता है कि हे दीनदयाल, अपने पार्षद जय का प्रणाम स्वीकार कीजिये। श्रीकृष्ण उसका प्रणाम स्वीकार करते हुए कहते हैं कि तुम्हारा कल्याण हो। तीन जन्मों के पश्चात आज तुम श्रापमुक्त हो गये हो। सो तुम बैकुण्ठ लोक में वापस जाओ। देखो, माता लक्ष्मी ने तुम्हें लिवाने के लिये दिव्य विमान भेजा है। शापमुक्त होकर पार्षद जय विमान से वापस बैकुण्ठ धाम को जाता है। स्वर्गलोक के द्वार पर पार्षद जय ब्रह्मर्षि नारद से जानना चाहता है कि उसे किस शाप से मुक्ति मिली है। नारद जी उसे स्मरण कराते हुए हैं कि तुम्हें सनद कुमारों ने श्राप दिया था। नारद पूरी कथा का वर्णन करते हैं। भगवान विष्णु के दो सेवक जय और विजय उनकी सेवा करते-करते उनके प्रमुख पार्षद बन गये थे। दानों के मन में अहंकार जागृत हो गया कि उनकी अनुमति के बिना प्रभु के महल में कोई नहीं जा सकता है। एक दिन ब्रह्माजी के चारों पुत्र सनक और सनानन्दन आदि भगवान के दर्शन हेतु वहाँ आये। दोनों पार्षदों ने उन्हें द्वार पर रोक दिया। ब्रह्मकुमारों ने क्रोधित होकर जय विजय को श्राप दे दिया तुम दोनों मृत्युलोक में जाकर निवास करो। तुम बैकुण्ठ में निवास के योग्य नहीं हो।
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