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|| Zafar Mahal || यहां दफन होने की ख्वाहिश आखिरकार तमन्ना ही रह गई बहादुर शाह जफर के दिल में !!

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यहां दफन होने की ख्वाहिश आखिरकार तमन्ना ही रह गई बहादुर शाह जफर के दिल में !!

18वीं सदी तक मुग़ल शासन का पतन होने लगा था और उसके शासित क्षेत्र भी उसके हाथों से निकल गए थे। औरंगज़ेब (1658-1707) जैसे मुग़ल बादशाहों के शासनकाल के दौरान भारतीय उप-महाद्वीप के ज़्यादातर हिस्सों पर मुग़लों का शासन हुआ करता था लेकिन 18वीं शताब्दी के आते आते मुग़ल सल्तनत सिर्फ़ दिल्ली तक सिमटकर रह गई थी।
बहादुर शाह ज़फ़र को सत्ता संभाले अभी बीस साल ही हुए थे कि सन 1857 में उनके सामने एक दुविधा आन पड़ी। 11 मई सन 1857 को दिल्ली और आस पास के अन्य हिस्सों में अंगरेज़ों के ख़िलाफ़ विद्रोह हो गया था। बंगाल सेना के भारतीय सिपाही बहादुर शाह ज़फ़र से मिलने मेरठ से दिल्ली पहुंचे। ये लोग अंगरेज़ों के ख़िलाफ़ हो गए थे जो उन्हें सूअर और गाय की चर्बी वाले कारतूस इस्तेमाल करने को कह रहे थे। बहादुर शाह पहले तो विद्रोह को लेकर हिचके लेकिन फिर विद्रोह का नेतृत्व करने को तैयार हो गए हालंकि ये नेतृत्व महज़ सांकेतिक ही था। इसके बाद सिपाहियों ने उन्हें ‘हिंदुस्तान का बादशाह’ घोषित कर दिया। ये बगावत चार महीने तक जारी रही और इस दौरान दिल्ली शहर और मुग़ल साम्राज्य को काफ़ी नुकसान पहुंचा। आख़िरकार अंगरेज़ सेना भारतीय सिपाहियों को हराने में क़ामयाब हो गई।
सितंबर सन 1857 में बहादुर शाह ज़फ़र ने अपने परिवार के साथ लाल क़िले में अपने महल से भागकर हुमांयू के मक़बरे में शरण ले ली। लेकिन 20-21 सितंबर को अंगरेज़ प्रशासक कैप्टन विलियम हडसन ने बहादुर शाह ज़फ़र को हुमांयू के मक़बरे से गिरफ़्तार कर लिया।
मुक़दमे के बाद बहादुर शाह ज़फ़र को सरकारी क़ैदी बनाकर निर्वासित कर दिया गया। बहादुर शाह ज़फ़र को निर्वासित करके कहां रखा जाए, इसे लेकर सात महीने तक विचार विमर्श चलता रहा। फिर मुग़ल बादशाह और उनके परिवार को दिल्ली से बाहर ले जाया गया। 7 अक्टूबर सन 1858 की सुबह चार बजे बहादुर शाह ज़फ़र, उनकी दो पत्नियों, दो बेटे तथा नौकर चाकर एक बैलगाड़ी में दिल्ली से रवाना कर दिए गए। उनके साथ लेफ़्टिनेंट एडवर्ड ओम्मनी था। ये काम गुपचुप तरीक़े से किया गया ताकि जनता को इसकी ज़रा भी भनक न लग सके। बादशाह को ख़ुद नहीं मालूम था उन्हें कहां ले जाया जा रहा है।

पांच साल के निर्वासन के बाद बेहद दुखी, बीमार और अपमानित बहादुर शाह ज़फ़र ने सात नवंबर 1862 में 87 साल की उम्र में दम तोड़ दिया। मौत के कई दिन पहले से डेविस और उसके सिपाही बहादुर शाह ज़फ़र की मौत को लेकर तैयारी कर रहे थे। उन्हें दफ़नाने के लिये ईंटे और चूना मंगवाया जा चुका था। सुबह पांच बजे बादशाह का निधन हुआ और उन्हें चुपचाप दफ़्न कर दिया गया। मुग़ल बादशाह के अंतिम संस्कार में उनके दोनों बेटे और उनके एक सेवक शामिल थे। एक छोटी सी प्रक्रिया के बाद उन्हें क़ब्र में दफ़्न कर दिया गया।

अंग्रेज़ उस स्थान पर बहादुर शाह ज़फ़र का कोई नामोनिशान नहीं चाहते थे। वे चाहते थे कि उनकी क़ब्र खो जाए, लोग उन्हें भूल जाएं और ऐसा कोई नामोनिशान न बचे जिससे उन्हें पहचाना जा सके। बादशाह के कफ़न-दफ़न के बारे में डेविस लिखते हैं-“क़ब्र के आसपास बांस का बाड़ा बना दिया गया। जब बांस का बाड़ा टूटफूट जाएगा, वहां घासफूंस उग आएगी जिसमें क़ब्र छुप जाएगी और कोई ऐसा कोई निशान नहीं बचा रहेगा जिससे पता चले कि महान मुग़ल बादशाह की क़ब्र कहां है।”

अंग्रेज़ों की योजना कुछ सालों तक कामयाब रही और किसी को क़ब्र के बारे में पता नहीं चल सका। सन 1886 में जब बहादुर शाह ज़फ़र की पत्नी ज़ीनत महल का निधन हुआ तो उन्हें भी बादशाह की क़ब्र के आसापस कहीं दफ़्न कर दिया गया। फिर सन 1905 में यंगून के मुसलमानों ने मांग की बहादुर शाह ज़फ़र की क़ब्र की निशानदही की जानी चाहिये और क़ब्र के पास इतनी ज़मीन दी जानी चाहिये कि वहां एक मक़बरा बनाया जा सके।

बहरहाल, बहादुर शाह ज़फ़र की क़ब्र को लेकर काफी समय तक विरोध होता रहा और आख़िरकार 1907 में अंगरेज़ सरकार उस स्थान पत्थर की एक सादी सी तख़्ती लगाने पर राज़ी हो गई। इस तख़्ती पर लिखा था- बहादुर शाह, दिल्ली का पूर्व राजा। रंगून में सात नवंबर सन 1862 को निधन हुआ और यहां पास में दफ़्न किया गया। क़ब्र के चारों ओर एक रैलिंग भी बना दी गई थी। उसी साल बेगम ज़ीनतमहल की क़ब्र पर भी इसी तरह की एक तख़्ती लगा दी गई थी।

16 फ़रवरी सन 1991 में जब यहां एक इमारत के लिये नाला खोदा जा रहा था तब कहीं जाकर ईंटों की एक क़ब्र मिली। और खुदाई में बादशाह का साबूत कंकाल मिला जो रेशम के कपड़े में लिपटा हुआ था जिस पर फूलों की पत्तियां बनी हुईं थीं।

अपने शहर से दूर अंतिम मुग़ल बादशाह का अंत अपने शहर से दूर त्रासदीपूर्ण रहा। माना जाता है कि बहादुर शाह ज़फ़र चाहते थे कि उन्हें दिल्ली में ख़्वाजा क़तुबउद्दीन बख़्तियार काकी (1173-1235) की दरगाह के ही पास दफ़्न किया जाय। बख़्तियार काकी दिल्ली के सूफ़ी (चिश्ती) संत थे। बहादुर शाह ज़फ़र ने मेहरौली में काकी की दरगाह के पास अपनी क़ब्र के लिये स्थान भी चुन रखा था।

बहादुर शाह ज़फ़र, उनके पिता और उनके पुरखे अकबर शाह-द्वतीय ने वहां एक ग्रीष्मकालीन महल बनवाया था जिसमें संगमरमर की एक छोटी मस्जिद है जिसे मोती मस्जिद कहते हैं। आज इस स्थान को ज़फ़र महल परिसर के नाम से जाना जाता है

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